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________________ --31-3-E --2--15-216-- *****-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी न्यानस्य न्यान रूर्व, दंसन दसेइ न्यान सहकारं । अन्यान मिच्छ तिक्तं, न्यानं अन्मोय रूव रूवं च ॥ १५४॥ अन्वयार्थ - (जायि कुलं नहु पिच्छदि) जाति कुल मत देखो, कोई भी मनुष्य, संज्ञी पंचेन्द्रिय पशु, नारकी, देव सभी सम्यक्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं, धर्म साधना में कोई जाति कुल का बंधन नहीं है (सुद्धं संमत्त दंसनं पिच्छइ) शुद्ध सम्यक्दर्शन होने की आवश्यकता है (न्यान सहाव अन्मोयं) अपने ज्ञान स्वभाव का आलंबन करो (अन्यानं सल्य मिच्छ मुंचेइ) अज्ञान, शल्य, मिथ्यात्व सब छूट जायेंगे। (न्यानस्य न्यान रूवं) ज्ञान का ज्ञान स्वरूप है, आत्मा का ज्ञान स्वरूप ही है (दंसन दंसेइ न्यान सहकारं) ज्ञान के सहकार से अपने सम्यक्दर्शन स्वरूप को देखो (अन्यान मिच्छ तिक्तं) अज्ञान मिथ्यात्व को छोड़ो (न्यानं अन्मोय रूव रूवं च) ज्ञान के आलंबन से अपने स्वरूप को देखो, यह शरीर को मत देखो। विशेषार्थ - सम्यकदर्शन को हर एक जाति व कुल का बुद्धिमान मनुष्य, हर एक नारकी, हर एक देव व हर एक सैनी पंचेन्द्रिय पशु प्राप्त कर सकता है क्योंकि इसका संबंध आत्मा से है। धर्म साधना मुक्ति प्राप्त करने में प्रत्येक जीव स्वतंत्र है । हर मनुष्य सम्यक्दर्शन प्राप्त कर सकता है, इसमें जाति कुल का भेद नहीं है । अपने ज्ञान स्वभाव का आलंबन लेने से अज्ञान, मिथ्यात्व, शल्य आदि सब छूट जाते हैं । जहाँ शुद्ध सम्यक्दर्शन, निज शुद्धात्मानुभूति होती है वह अपने ज्ञान स्वभाव का ही आलंबन रखता है, उसका सब अज्ञान मिथ्यात्व छूट जाता है, वहां शरीरासक्ति रूप मिथ्याज्ञान और कोई शल्य नहीं रहती। उसके अपने ज्ञान स्वभाव आत्मा के सिवाय पर वस्तु में परमाणु मात्र भी राग भाव नहीं रहता है। सम्यक्दृष्टि साधक ज्ञान के वास्तविक स्वरूप को जानता है। मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, इस प्रतीति को निश्चय सम्यकदर्शन और मैं शुद्ध आत्मा ही हूँ, नि:संशय ज्ञान को सम्यक्ज्ञान और अपने ज्ञान स्वभाव में स्थिर रहने को सम्यक्चारित्र जानता है। उसकी दृष्टि निर्मल हो गई है, उसका अज्ञान मिथ्यात्व छूट जाता है, वह अपने ज्ञानानंद स्वभाव में मगन रहकर अतीन्द्रिय आनन्द भोगता है। गाथा-१५३,१५४--- - - सम्यक्दर्शन चाहे ब्राह्मण को हो अथवा चांडाल को, दोनों को एक ही तत्त्व की प्राप्ति होती है। ज्ञान स्वभावी आत्मा शुद्धात्म तत्त्व में कोई दोष विकार या विषमता है छ ही नहीं, जितने भी दोष या विषमतायें आती हैं वे सब अज्ञान मिथ्यात्व से राग पूर्वक सम्बंध मानने से आती हैं । परमात्म तत्त्व, कर्म प्रकृति और अज्ञान मिथ्यात्व के सम्बंध से सर्वथा निर्लिप्त है। भोगों को प्राप्त करना अपने वश की बात नहीं है क्योंकि इसमें प्रारब्ध की प्रधानता और मनुष्य की परतंत्रता है परंतु अपने ज्ञान स्वभावी परमात्म तत्त्व की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य कर सकता है, इसके लिये ही यह मनुष्य शरीर मिला है। स्वरूप का ज्ञान स्वयं के द्वारा ही स्वयं को होता है, इसमें ज्ञाता ज्ञेय का भाव नहीं रहता। जिस भव्य जीव को निज शुद्धात्मानुभूति शुद्ध सम्यकदर्शन होता है, उसे कभी विकल्प, संदेह, विपरीत भावना, असंभावना आदि होती ही नहीं है, उसे ही सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कहते हैं। ___ मानी हुई बात, न मानने पर टिक नहीं सकती और मान्यता को पकड़े रहने पर किसी अन्य साधन से मिट नहीं सकती। जब तक तत्त्व प्राप्ति का दृढ निश्चय नहीं होता तब तक अच्छे-अच्छे साधकों के अंत:करण में भी कुछ न कुछ द्विविधा विद्यमान रहती है। यदि साधक का यह दृढ़ निश्चय हो जाये कि मुझे परमात्म पद के सिवाय कुछ नहीं चाहिये तो वह वर्तमान में ही मुक्त हो सकता है; परंतु यदि वस्तुओं के सुख भोग और जीने की इच्छा रहेगी तो इच्छा कभी पूरी नहीं होगी और मृत्यु के भय से भी बचाव नहीं होगा तथा क्रोध से भी छुटकारा नहीं होगा इसलिये अज्ञान मिथ्यात्व शल्य रहित होना आवश्यक है। सम्यक्त्व में पूछीन जाती, जात रे न पांत रे। सम्यक्त्व में उठतीन, हेयाहेय कुलकीवात रे॥ सम्यक्त्व के संसार में, सम्यक्त्व ही बस शेय है। पर वस्तु सब मिथ्यात्व है. अज्ञान सारा हेय है॥ दर्शन यही, सारे विकारों से रहित है आत्मा । हैशान यहही आत्मा ही,है कि बस परमात्मा ।। मानी 得到法》答卷。 -E-HE-2-12--- 1-1--
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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