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*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
महाव्रत के नाम से कहा गया है। इन व्रतों का सार यही है कि मनुष्य संसार से विमुख और मुक्त हो जाये ।
शरीर से जो क्रियायें होती हैं, वाणी से जो कथन होता है और जो मन से संकल्प होते हैं वे सभी कर्म कहलाते हैं ।
अंतःकरण में ३ दोष होते हैं
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१. मल (संचित पाप ) २५ दोष । २. विक्षेप चित्त की चंचलता, संशय, विभ्रम, विमोह । ३. आवरण अज्ञान, पूर्व कर्म बंधोदय। इन सबसे हटकर भेदज्ञान द्वारा अपने स्वरूप को भिन्न जानना तत्त्वज्ञान है । जैसे - अग्नि काष्ठ को भस्म कर देती है, वैसे ही तत्त्वज्ञान रूपी अग्नि-संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण तीनों कर्मों को भस्म कर देती है; इसलिये इस शरीर के माध्यम से अपने सत्स्वरूप शुद्धात्मा का ज्ञान श्रद्धान कर अज्ञान मिथ्यात्व से छूटना ही मुक्ति मार्ग है ।
इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं.
सुद्ध सहावं पिच्छदि, अप्पा सुद्धप्य विमल झानवं ।
विन्यान न्यान सुद्धं, न्यान सहावेन सयल तं भनियं ।। १५१ ।। अन्यानं नहु पिच्छदि, न्यान सहावेन रूव रूवं च ।
दुबुहि रूव नहि दिई, सुद्धं न्यानं च रूव मिलियं च ।। १५२ ।। अन्वयार्थ (सुद्ध सहावं पिच्छदि) अपने शुद्ध स्वभाव को पहिचानो (अप्पा सुद्धप्प विमल झानत्थं) आत्मा शुद्धात्मा विमल, सारे कर्म मलों से रहित है ऐसा ध्यान करो (विन्यान न्यान सुद्धं) इसी से भेदज्ञान तथा ज्ञान शुद्ध होता है (न्यान सहावेन सयल तं भनियं) ज्ञान स्वभाव मात्र तुम हो, ऐसा कहा गया है।
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(अन्यान नहु पिच्छदि) अब अज्ञान रूप परिणमन मत करो, अज्ञान को मत पहिचानो (न्यान सहावेन रूव रूवं च ) ज्ञान स्वभाव से अपने आत्म स्वरूप को जानो, अपने स्वरूप को देखो (दुबुहि रूव नहि दिट्ठ) दुर्बुद्धि रूप मत देखो, अनादि अज्ञान मिथ्यात्व को छोड़ो ( सुद्धं न्यानं च रूव मिलियं च ) शुद्ध ज्ञान पूर्वक अपने शुद्ध स्वरूप में रत रहो, शुद्धोपयोग की साधना का पुरुषार्थ करो ।
विशेषार्थ - मनुष्य भव की सार्थकता और विशेषता तभी है जब अपने
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गाथा १५१-१५३****
आत्म स्वरूप शुद्धात्मा को पहिचानो, मैं आत्मा शुद्धात्मा, परमात्मा, विमल, ममल स्वभावी हूँ इसका ध्यान करो। इसी से भेदज्ञान तथा ज्ञान शुद्ध होता है । ज्ञान स्वभाव की साधना से समस्त शरीरादि कर्म संयोग छूट जाते हैं, ऐसा जिनवाणी में कहा है और तुम भी कह रहे हो । अब यह अज्ञान मिथ्यात्व छोड़ो, इनकी तरफ मत देखो, यह दुर्बुद्धि रूप परिणमन मत करो, अपने ज्ञान स्वभाव से अपने स्वरूप की साधना करो, अपने स्वरूप में मुक्ति श्री से मिलो तभी तुम्हारे इस मनुष्य भव को प्राप्त करने की सार्थकता है। कलरंजन दोष से अनादि काल से संसार में भटके हो, अब इस शरीर के द्वारा संयम तप करके मुक्ति को प्राप्त करो ।
सम्यक्त्वी जीव शुद्ध स्वरूप का श्रद्धानी आत्म ध्यान का अभ्यास करता रहता है, मैं शुद्धात्मा ब्रह्म स्वरूपी परमात्मा हूँ ऐसा ध्याने से उसका भेदज्ञान निर्मल होता है। आत्मा-अनात्मा का विवेक, ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने ज्ञान बढ़ जाता है ।
सम्यक दृष्टि के कुमति, कुश्रुत व कुअवधिज्ञान नहीं रहता है, उसका अज्ञान और दुर्बुद्धिविला जाती है फिर वह अज्ञान और दुर्बुद्धि की तरफ देखता भी नहीं है। शुद्धात्मा का ध्यान करके अपने उपयोग को उसमें जोड़ता है, संसारी राग विषय में नहीं उलझता, आत्मानुभव का बड़ा ही रसिक होता है।
जीव स्वरूप से अकर्ता तथा सुख-दुःख से रहित है, केवल अपनी दुर्बुद्धि मूढ़ता के कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्म फल के साथ संबंध जोड़कर सुखी - दु:खी होता है। जिन पुरुषों ने अपने भेदविज्ञान के द्वारा अज्ञान को नष्ट कर दिया है अर्थात् असत् परिस्थिति पदार्थ आदि आने-जाने वाले हैं और स्वयं सत्स्वरूप रहने वाला है, ऐसा अनुभव करके असत् से सर्वथा सम्बंध विच्छेद कर लिया है, उनका वह ज्ञान, जैसे सूर्य सब वस्तुओं को प्रकाशित करता है, वैसे ही लोकालोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान के रूप में प्रगट होता है; इसलिये मनुष्य भव का सदुपयोग ज्ञान स्वभाव की साधना करने में करो, इसमें जाति कुल आदि मत देखो।
इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं
जायि कुलं नहु पिच्छदि, सुद्धं संमत्त दंसनं पिच्छड़ ।
न्यान सहाव अन्मोयं, अन्यानं सल्य मिच्छ मुंचेइ ॥ १५३ ॥
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