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________________ गाथा-१४९,१५० -----H-HI- HEE 新北市要改行帝, 常常 :::多层为是当是当关系 HHA श्री उपदेश शुद्ध सार जी पूर्ण आचरण का अभाव होना। ३. शरीर मन वाणी से किसी भी प्राणी को किसी प्रकार कभी भी किंचित् मात्र दु:ख न देना। ४. शरीर मन और वाणी की सरलता एवं निस्पृहता होना। ५. मन, इन्द्रियों के सहित शरीर को वश में रखना। यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनिवो जिनवाणी। इह विधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी॥ कलरंजन दोष छोड़कर इस शरीर का सदुपयोग अपने आत्महित में कर लें, इसके लिये आगे गाथा कहते हैं - कलरंजन जिन उवएस, सुद्ध सम्मत्त न्यान सहकारं। दंसन अनंत दस, अप्पा परमप्प लण्य सुभावं ॥ १४९ ॥ चरनंपि दुविह भेयं, सहकारेन तवंपि विमलं च । दंसन चौविहि जुत्तं,न्यानं अवयास तजति अन्यानं ।। १५०॥ अन्वयार्थ - (कलरंजन जिन उवएस) मनुष्य भव- यह शरीर मिलने की सार्थकता का उपदेश यही है कि (सुद्धं सम्मत्त न्यान सहकार) शुद्ध सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान को स्वीकार किया जाये (दंसन अनंत दर्स) अपने अनंत चतुष्टयमयी स्वरूप को देखा जाये (अप्पा परमप्प लष्य सुभावं) आत्मा का परमात्म स्वभाव झलक जावे। (चरनपि दुविह भेयं) दोनों प्रकार के चारित्र का पालन किया जावे (सहकारेन तवंपि विमलं च) उस चारित्र के साथ निर्मल तप भी करना योग्य है (दंसन चौविहि जुत्तं) चार प्रकार के दर्शन में युक्त रहना (न्यानं अवयास) ज्ञान का अभ्यास करना (तजंति अन्यानं) जिससे अज्ञान मिट जाता है। विशेषार्थ - कलरंजन दोष इसलिये बताये हैं कि जीव का रागभाव इस नाशवंत पुद्गल मय शरीर से छूट जावे और शद्धात्मा की प्रतीति रूप * सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान का प्रकाश हो जावे तभी इस मनुष्य भव की सार्थकता है। जब तक पर्याय बुद्धि का अहंकार नहीं मिटता है तब तक जीव बहिरात्मा बना संसार में रुलता है। अपने अनंत चतुष्टयमयी स्वरूप के दर्शन होने से आत्मा का परमात्म स्वभाव झलक जाता है, जिससे आत्मा सर्व कर्म संयोग से *** * * **** मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है। इसके लिये इस शरीर का सदपयोग चारित्र का पालन करने, संयम तप की साधना करने में करना चाहिये । चारित्र दो प्रकार का कहा गया है- १. सम्यक्त्वाचरण चारित्र २. संयमाचरण चारित्र । दोनों प्रकार के चारित्र के साथ निर्मल तप करना भी योग्य है।। १. सम्यक्त्वाचरण चारित्र में - २५ दोष से रहित शुद्ध सम्यक्दर्शन का पालन करना। २.संयमाचरण चारित्र में-तेरह विधि चारित्र-५महाव्रत,५ समिति, ३ गुप्ति का पालन करते हुए आत्मध्यान की साधना करना। ३. तप के बारह भेद - छह बाह्य और छह आभ्यंतर । बाह्य तप-अनशन, ऊनोदर, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश। अंतरंग तप-प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान। इस प्रकार तप सहित पूर्ण चारित्र का पालन करने से चार प्रकार के दर्शनोपयोग की साधना होती है, जिससे समस्त अज्ञान छूटकर केवलज्ञान का प्रकाश होता है। मानव शरीर आत्म कल्याण करने के लिये मिला है, इससे सम्यवर्शन सम्यज्ञान प्राप्त करके सम्यकचारित्र का पालन करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है, आत्मा परमात्मा हो जाता है। चेतन को जड़ से तादात्म्य होने के कारण ही बहिरात्मा (जीवात्मा) कहते हैं । विवेक विचार पूर्वक जड़ से सर्वथा विमुख होकर अपने परमात्म स्वरूप के दर्शन को सम्यक्दर्शन, स्व-पर के यथार्थ ज्ञान को सम्यक्ज्ञान कहते हैं। सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक पाप विषय कषाय से हटकर अपने स्वभाव में रहना सम्यक्चारित्र है। यथार्थ संयम तभी समझना चाहिये जब इंद्रियों, मन, बुद्धि तथा अहं इन सबसे राग आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जावे। १. पहली प्रक्रिया में साधक एकांत काल में मन और इंद्रियों का संयम करता है फिर विवेक विचार जप ज्ञान ध्यान आदि से मन का संयम होने लगता है, जब राग का अभाव हो जाता है तब संयम शुद्ध होने पर एकांत काल और व्यवहार काल दोनों में उसकी स्थिति समान रहती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पांच यम हैं, जिन्हें 器卷器装器 ॐ 地市市章年年地點 E-ME ११०
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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