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________________ गाथा-१४६-१४८-----H-HREE ----- 新北市要改行帝, 常常 कर *** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी जानता ही नहीं है (कलरंजन दोष दुग्गए पत्तं) कलरंजन दोष से दुर्गति का पात्र बनता है। विशेषार्थ- कलरंजन दोष के क्या परिणाम होते हैं, इस बात को यहाँ बताया जा रहा है। कलरंजन दोष वाला जीव हमेशा लाज भय गारव सहित होता है, सैद्धांतिक ज्ञान की बातें करता है परंतु स्वयं सशंकित भयभीत रहता है। अपने शरीर के बनाव श्रृंगार को देखता रहता है। अच्छे-अच्छे वस्त्र मकान और बाहरी साज सज्जा, खान-पान के जुटाने में लगा रहता है। धर्म चर्चा करके अपनी आजीविका चलाता है, लोगों को ज्ञान की बातें बताकर स्वयं धन संग्रह करता है। कोई मेरी निन्दा बुराई आलोचना न करे इसी से हमेशा भयभीत सशंकित रहता है। शरीर के सुखियापने के लिये मायाचारी करके पापकर्म का बंध करता है। शरीर के तीव्र राग से शरीर की चेष्टा का बड़ा उत्साह हो जाता है, अपने को रूपवान, बलवान, भोगासक्त देखकर बड़ा प्रसन्न रहता है। जो धर्म साधना, व्रत, उपवास, संयम, नियम का पालन करते हैं, उनकी विराधना, आलोचना करता है, उनसे घृणा करता है, ज्ञान की चर्चा करता है। भेदज्ञान, तत्त्व निर्णय दूसरों को बताता है, स्वयं ग्रहण नहीं करता है, अपने ज्ञान के मद में फूला रहता है, तीव्र ज्ञानावरण कर्म और नरक आयु बांधकर नरक चला जाता है। शरीर को ही सब कुछ मानकर जो शरीर में रत रहते हैं, वे शुद्ध आत्मीक भावों पर लक्ष्य न देते हुए अशुद्ध विषय-कषाय, शुभाशुभ कर्म में लगे रहते हैं तथा अनेक प्रकार देव मूढता, गुरू मूढता व लोक मूढता में फंसे रहते हैं, उनकी दृष्टि पुद्गल पर ही रहती है। धन, शरीर, परिवार के लिये ही नाना प्रकार के मायाचार करते रहते हैं। इस प्रकार कलरंजन दोष के कारण जीव दुर्गति चला जाता है। चेतन और जड़, विद्या और अविद्या, प्रकाश और अंधकार, गुण और * दोष से पूर्ण यह विचित्र सृष्टि है, इसमें मनुष्य को विवेक, बुद्धि की विशेषता है, जिसके सहारे वह जड़ अविद्या (अज्ञान) अंधकार और दोष का परित्याग * कर चेतन, विद्या (ज्ञान) प्रकाश और गुण का आश्रय करके अपने सत्य स्वरूप * को जानते हुए परमार्थ पथ में उत्साह और उल्लास के साथ चलता रहे। * मनुष्य के विवेक बुद्धि की यह स्वाभाविकता तभी सार्थक है, जब मनुष्य ***** * * *** सतत् सतर्क एवं सावधान होकर अहर्निश भीतर से जागरूक होकर अपने स्वरूप के स्मरण-चिंतन ध्यान में लगा रहे। उद्देश्य का विस्मरण ही सारी विपत्ति का मूल है। जहाँ उद्देश्य एक क्षण के लिये भी विस्मृत हुआ कि प्रपंच के लुभावने पर्दे आंखों पर और बुद्धि पर पड़े कि बुद्धि अपना विवेक खो देती है। मन की लगाम ढीली पड़ जाती है, इन्द्रियाँ विषयों के मोहक रूप पर आसक्त हो जाती हैं और सबसे भयावह परिणाम यह होता है कि बुद्धि के दोष से असत् में सत् बुद्धि, अपवित्र में पवित्र बुद्धि, असुख में सुख बुद्धि और अनित्य में नित्य बुद्धि हो जाती है। इस कारण मनुष्य स्वभावत: असत्, असुख, अपवित्र और अनित्य शरीरादि संयोग की आराधना करने लगता है क्योंकि उनके रूप पर आकर्षण का जो स्वर्ण मय आवरण पड़ा है, वही उसे उसके सत्यरूप को देखने नहीं देता यही कलरंजन दोष है और इसी वृत्ति का नाम जड़ उपासना है। मन, बुद्धि और इन्द्रियादि सहित जो स्थूल शरीर देखने में आता है, यह परिवर्तनशील क्षीण होने वाला एवं नाशवान है और इसमें जो चैतन्य ज्योति परमात्म स्वरूप है, इन दोनों को भिन्न जानना ही ज्ञान है तथा जो * इन्हें भिन्न जानता, अनुभवता है वह ज्ञानी है। देह आत्मा नहीं है,आत्मा वेहनहीं, घटादि को देखने वाला जैसे Hघटादि से भिन्न है, वैसे ही देह को देखने जानने वाला आत्मा देह से भिन्न है। विचार करते हुए यह बात प्रगट अनुभव सिब होती है तो इस देह के स्वाभाविक क्षय, वृद्धि, रूपावि परिणाम देखकर हर्ष, शोकवान होना किसी प्रकार से संगत नहीं है। देह से जैसा वस्त्र का संबंध है वैसा ही जिन्होंने आत्मा से देह का संबंध यथा तथ्य देखा है, म्यान से जैसे तलवार का सम्बंध है उसी प्रकार जिन्होंने देह से आत्मा का संबंध देखा है और जिन्होंने अबद्ध स्पृष्ट आत्मा का अनुभव किया है, उन महापुरुषों को जीवन और मरण ® समान हैं। कलरंजन दोष से छूटने के उपाय १. शरीर के आदर सत्कार और कल्पित नाम की कीर्ति एवं प्रतिष्ठा की चाह का अभाव होना। २. मान पूजा आदर प्रतिष्ठा लाभ आदि के लिये किये जाने वाले कपट 层层:: 怪」 १०९
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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