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साधक
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साधक
१-52-53-15--16
*********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी विषय वस्तु
पृष्ठ गाथा ३४.व्यसन ३५.विकथा
३६.इन्द्रिय ३७. रसना ३८. स्पर्शन
३९. घ्राण ४०. चक्षु ४१.कर्ण
४२. शरीर ४३. संज्ञा ४४. आहार
४५. खाद्य-स्वाद-पेय-लेह्य ४६.निद्रा ४७. भय
४८.मैथुन ४९. आसा ५०. स्नेह
५१.लाज ५२.लोभ ५३. भय
५४. मनरंजन गारव ५५. आलस ५६. प्रपंच
५७.विभ्रम २५. चौदह प्राण रूप परमात्म दशा की अनुभूति २५५-२५८ ४६०-४६८ २६. सम्यक्दर्शन के अष्ट अंग प्रगट होना २५९-२६७ ४६९-४८८
पंचम-मोक्षमार्गअधिकार २७. मुक्ति मार्ग का विधान आत्म भावना २६८-२६९ ४८९-४९१ २८. आत्मा ही आत्मा को तारने वाला है। २६९-२७० ४९२-४९३ २९. आत्म पुरुषार्थ ही मोक्षमार्ग है
२७०-२७१ ४९४ -४९५ ३०. आत्मा स्वयं तारण तरण समर्थ है
२७१-२७२ ४९६ ३१. भाव शक्ति जाग्रत करो-४७ भाव शक्ति २७२-२८७ ४९७-५२०
१. दर्सति २. इच्छंति ३. षिपिऊन ४.चेतन्ति ५.रुचितं ६.उत्तं
७.परषे । ८.बोलतो ९. धरयंति १०.पीओसि ११.रहिओ १२.दिष्टंति १३. जिनियं १४.लेतं १५. कलियंति १६.लष्यंतु १७. अन्मोय १८.जानंति १९.कहंतु २०. अमडेइ २१. साहति २२. पोषंतु २३. सिद्धंतु
२४. गर्म २५.सुनियं २६. अनुभवंति २७.लीन २८. गहियं २९.जोयंतो ३०. मानंतु ३१. रचयंति ३२.परिनइ ३३. पूरंति ३४. साधंतु ३५. नितंति ३६. सुद्धं ३७. अवयास ३८. इष्टं ३९. गंजंतु ४०.दमनं ४१. गलंतु ४२. विरयं ४३. तिक्तंतु ४४.विन्यान
४५. अनन्त ४६. तरंति ४७.सिद्ध ३२. सिद्ध स्वरूप की विशेषता
२८७-२९० ५२१-५२९ कमल स्वभाव-ज्ञायक भाव
२९०-२९४ ५३०-५३९ * ३४. आत्म शक्ति जाग्रत करो
२९४-३०६ ५४०-५७८ ३५.
अज्ञान संसार मार्ग है सम्यक्ज्ञान मोक्षमार्ग है ३०६-३०९ ५७९-५८४ उपदेश शुद्ध सार - अन्तिम प्रशस्ति ३०९-३१२ ५८५-५८९
सम्यक दृष्टि ज्ञानी हो, जो ममल भाव में रहता है। धुवतत्व शुद्धातम हूँ मैं, सिद्धोहं ही कहता है ॥ ज्ञान ध्यान की साधना करता, जपता आतम राम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ पर पर्याय का लक्ष्य नहीं है, ध्रुव तत्व पर दृष्टि है। भेद ज्ञान तत्व निर्णय करता, बदल गई सब सृष्टि है ॥ विषय कषायें छूट गई हैं, छूट गया धन धाम है । शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है | वस्तु स्वरूप को जान लिया है, अभय अडोल अकंप है। त्रिकालवर्ती पर्याय क्रमबद्ध, इसमें जरा न शंक है ।। धु वधाम में बैठ गया है, जग से मिला विराम है । शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है। सभी जीव भगवान आत्मा, सब स्वतंत्र सत्ताधारी । पुद्गल द्रव्य शुद्ध परमाणु, उसकी सत्ता भी न्यारी ।। द्रव्य दृष्टि से देखता सबको, अपने में निष्काम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है । सिद्ध स्वरूप का ध्यान लगाता, निजानंद में रहता है। तत् समय की योग्यता देखता, किसी से कुछ न कहता है। सत्पुरुषार्थ बढ़ाता अपना, अपने में सावधान है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥ जग का ही अस्तित्व मिटाता, सब माया भ्रमजाल है। सत्ता एक शून्य विन्द का, रखता सदा ख्याल है । तन-धन-जन से काम रहा नहीं, मन का भी विश्राम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है । ज्ञेय भाव सब ही भ्रांति है, भावक भाव भ्रमजाल है। त्रिगुणात्मक माया का, फै ला सब जंजाल है ॥ निज स्वरूप सत्य शाश्वत है, सहजानंद सुखधाम है। शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना, साधक का यह काम है ॥
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