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*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
अपनी बात
श्री उपदेश शुद्ध सार जी ग्रंथ सद्गुरु वीतरागी संत श्री जिन तारण स्वामी द्वारा विरचित है। मुक्ति मार्ग के पथिक सम्यक् दृष्टि ज्ञानी साधक की जीवन चर्या निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक होती है। जीव के साथ पूर्व कर्म बंधोदय परिणमन चलता है. इससे कैसे छूटा जाये, इसका पूरा समाधान, अंतरंग में चलने वाले परिणाम, बाह्य शरीरादि क्रियारूप परिणमन और कर्मोदय जन्य अशुद्ध पर्याय, इनका किस प्रकार कैसा परिणमन चलता है, कैसा कैसा क्या क्या होता है ? सद्गुरु ने अपने अनुभव से आगम प्रमाण सिद्ध कर मार्ग बतलाया है। यह ग्रन्थ साधक के लिये संजीवनी है, इसमें जो रहस्य भरे हैं, वह साधक ही अपने अनुभव प्रमाण सिद्ध कर सकता है।
मेरा परम सौभाग्य है कि सद्गुरू के ग्रंथों को पढ़ने समझने का शुभयोग मिला और उसी क्रम में यह साधक संजीवनी टीका लिखने का भाव हुआ। श्री उपदेश शुद्ध सार जी ग्रंथ का वांचन पिपरिया वर्षावास, बरेली मौन साधना के समय एवं अमरवाड़ा वर्षावास में आद्योपांत हुआ, इससे एक प्रेरणा मिली और स्वयं की साधना में जो बाधायें विकल्प आ रहे थे, उनका समाधान प्राप्त करने के लिये इस ग्रंथ की टीका दिनांक १.६.११ से प्रारंभ की जो आज दि. २९.६.१२ को पूरी हुई।
वर्तमान में ऐसे साधक सद्गुरुओं का सुयोग नहीं मिल रहा है, जो अंतरंग की समस्या को सुलझा सकें, इस ग्रंथ की टीका करने से मुझे अपूर्व लाभ मिला है। समय का सदुपयोग ज्ञानोपयोग में हुआ है और अपनी बहुत सी ग्रंथियां सुलझ गईं। ज्ञान का क्षयोपशम न होने से विशेष स्पष्ट समझ में नहीं आया फिर भी अपनी समझ से और अपने को ही समझने के लिये यह टीका लिखी है, अन्य साधक बंधुओं को लाभ मिले यह उनकी पात्रता की बात है। ज्ञानी साधक अपने अनुभव से जो इसमें कमी रह गई हो वह पूरी करें और जो गल्ती हो उसके लिये उत्तम क्षमा भाव पूर्वक ठीक कर अवगत करायें।
एक वर्ष में बरेली, अमरवाड़ा, जबलपुर और सिलवानी में रहते हुए यह कार्य संपन्न हुआ, सभी सहयोगी जनों का आभारी हूं । सद्गुरू शरणं...
ज्ञानानन्द
बरेली
दिनांक : २९.६.१९९२
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भूमिका ***
भूमिका
जीवों को जगाने के लिये समय-समय पर भगवान, तीर्थंकर महात्मा, संत, ज्ञानी महापुरुष हुए हैं। सबने मनुष्य को अपना आत्म कल्याण करने, संसार के चारगति चौरासी लाख योनियों के जन्म-मरण के चक्र से छूटने, सुख शांति आनंद में रहने तथा मुक्त होने का उपदेश दिया है। इसके लिये नाना प्रकार के उपाय, विधि विधान, व्यवस्था, साधन, देश, काल परिस्थिति तथा जीव की पात्रतानुसार बताये हैं।
मूल उद्देश्य तो सबका एक ही है कि यह जीव अपने सत् स्वरूप को जान ले क्योंकि अनादि से यह जीव अपने अज्ञान मिथ्यात्व के कारण यह शरीर ही मैं हूं, यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इन सबका कर्ता भोक्ता हूँ, ऐसा मानता हुआ माया मोह में विमोहित, सुखी- दुःखी होता, जन्म-मरण करता चला आ रहा है; जबकि वास्तव में यह जीवात्मा स्वयं ब्रह्मस्वरूपी शुद्धात्मा, परमात्मा है। इसका बोध जगाने के लिये जीव की पात्रता परिस्थिति देश काल के 'अनुसार साधन भिन्न-भिन्न अनेक प्रकार के बताये हैं। यथार्थ तत्व ज्ञान न होने से मूल वस्तुस्वरूप तो पकड़ में आया नहीं, साधन एवं व्यवहारिक आचरण पकड़ लिया और उसको लेकर जाति सम्प्रदाय के रूप में धर्म के नाम पर धंधा शुरू हो गया और अपना-अपना मठ-मंदिर, पूजा, उपासना पद्धति को लेकर धर्म के नाम पर विवाद होने लगा, जिसके कारण मनुष्य धर्म के सत्य स्वरूप से विमुख होकर जाति-पांति सम्प्रदाय के व्यवहार आचरण क्रियाकांड में ऐसा उलझ गया कि धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, भले-बुरे का हिंसा-अहिंसा का हित-अहित का भी विवेक खो बैठा।
संत ज्ञानी महापुरुषों का अवतरण तो होता ही रहा है और होता रहेगा। धर्म की स्थापना करना भी प्रकृति की व्यवस्था है। इसी परम्परा में सोलहवीं शताब्दी में अध्यात्मवादी वीतरागी संत श्री मद् जिन तारण स्वामी हुए, जिन्होंने श्रमण संस्कृति, जिनदर्शन के अनुसार शुद्ध अध्यात्मवाद, अपना आत्म कल्याण करने की बात जन-जन के लिये कही है। जब उनका अध्यात्म जन जागरण अभियान चल रहा था, उसमें मानव मात्र के लिये आत्मकल्याण करने, मुक्त होने का संदेश दिया जा रहा था, जिसमें न जाति-पांति का बंधन, न कोई क्रियाकांड है; केवल सत्य वस्तु स्वरूप समझने, अपनी दृष्टि पलटने, मान्यता बदलने, अपने आपको पहिचानने की बात बताई जा रही थी कि हे भव्य ! तू स्वयं भगवान है, अपनी स्वसत्ता शक्ति को देख, तू चैतन्य ज्योति परमात्म स्वरूप है। यह शरीरादि संयोग तू नहीं है, यह कोई भी कुछ भी तेरा नहीं है, तू मात्र ज्ञाता दृष्टा, ज्ञायक स्वभावी है।
मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है। धर्म साधन, आत्महित करने में हर व्यक्ति स्वतंत्र है। जब यह सब अभियान चल रहा था तब उनके प्रमुख अनुयायियों ने प्रश्न किया कि गुरुदेव ! वास्तविक सत्य धर्म मुक्ति का मार्ग क्या है और जिनेन्द्र भगवान आदि महापुरुषों के उपदेश का शुद्ध सार क्या है ? किस क्रम से, किस साधना पद्धति से चलकर वास्तविक मुक्ति परमानंद दशा परमात्म पद मिलता है, इसको बताने की कृपा करें ?
सभी भव्य जनों के समाधान हेतु और अपनी साधना के प्रमुख लक्ष्य से यह श्री उपदेश शुद्ध सार ग्रन्थ प्रगट हुआ है, जो मुक्ति मार्ग के साधक मुमुक्षु जीवों के लिये साधक संजीवनी है। इसका निष्पक्ष भाव से स्वाध्याय मनन करने, तद्रूप आचरण करने से परमानंद दशा परमात्म पद तथा मुक्ति की प्राप्ति होती है।
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