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तू मत चित्त लगाय भाव तजि, कुगुरु कुदेव की वानी। यह तोकू दुरगति दिखलावै, सो दुख मूल निशानी ॥ इनतें काज एक नहिं सुधरै, करम भरम के दानी । सूरत तजि विपरीत ईन सो, सतगुरु आप बखानी ॥ ३३ ॥
ज्ञानी मानै नाहिं, दरब वे जो रतनन को जाने । माटी भूमि शैल की, जो धन जग में प्रगट बखानै ॥ पुद्गल जीव धरम अरु अधरम, काल आकाश प्रमानै। सूरत इन दरबन की चरचा, ज्ञानी गिनै बखानै ।। ४१॥
णणा रण ऐसो करो, संवर शस्त्र संभार । कर्म रूपये अरि बड़ो, ताहि ताक करि मार ॥ ३४॥
धधा ध्यान जु जगत में, प्रगट कहे हैं चार । आर्त रौद्र धर्म सुशुकल, जिनमत कहै विचार ॥ ४२॥
ताहि ताक करि मार, निवारो कर्म रूप अरि सोई। है अनादि के ये दुखदाई,तेरी जाति विगोई॥ नारायण प्रतिहरि हर चक्री, यातें बचे न कोई। सूरत ज्ञान सुभट जब जागै,तिन इनकी जड़ खोई॥३५॥
जिनमत कहै विचार, चार ये ध्यान जगत के माहीं। आरत रौद्र अशुभ के दाता, इनतै शुभगति नाहीं॥ धर्म ध्यान जे नर धारक, सब सुख होत सदा ही। सूरत शुक्ल ध्यान के करता,ते शिवपुर को जाही॥ ४३ ॥
तता तन तेरा नहीं, जामै रह्यो लुभाय । तेरे नाते तनक में, ताहि कहां पतियाय ॥ ३६॥
नना नाशै करम जब, नेह धरै निज माहिं। नट की कला जु जगत में, नेह करै छिन नाहिं॥४४॥
ताहि कहां पतियाय, पाय सुख है रह्यो जग को वासी। छिन में मरे छिनक में उपजे, होय जगत में हांसी ॥ याके संग बढ़े बहु ममता, परै महादुख फांसी। सूरत भिन्न जान इस तन को, यासे रहो उदासी ॥ ३७॥
नेह करै छिन नाहिं जगत में, आपा नाहिं फंसावै। ज्यों पानी में रहे कमल, तउ जल का भेद न पावै॥ शुभ अरु अशुभ एक से दोनों, रीझै ना पछितावै। सूरत भिन्न लखै ऐसी विध, करन कहाँ ढिग आवै ॥४५॥
थथा थिरपद को चहें,यों थिरपद नहिं होय । थिरता करि परिणाम की, थिरपद परसै सोय ॥ ३८॥
पपा प्रभु अपनो लखो, पर संगति दे छोर । पर संगति आस्रव बढे, देय करम झकझोर ॥ ४६॥
थिरपद परसै सोय होय सुख ,गति चारन सों छूट। ज्ञान ध्यान को करै हथोड़ा, कर्म अरिनि को कूटै॥ यह जग जाल अनादि काल का,सो ऐसी विधि टूटै। सूरत थिरपद को जो परसै, शिवपुर के सुख लूटै ॥ ३९॥
देय करम झकझोर, जोर करि फिर निकसन नहि होई। आस्रव बंध पड़ी है बेड़ी,लगे उपाय न कोई ॥ यातै प्रीति करो संवर सों, हितकारी दिल जोई। सूरत संवर को आदरिये, कर्म निर्जरा होई ॥ ४७ ॥
ददा दरब छहों कहे, प्रगट जगत के मांहि । और दरब सब खेल हैं, ज्ञानी मानै नाहिं ॥ ४०॥
फफा फूल्यो ही फिरे, फोकट लखै न भूल। फांसी पड़ी अनादि की, करि तोड़न को सूल॥४८॥
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