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काज न होय निदान, जान यह वश नाहीं मन तेरा। पांचों इन्द्री छठा चोर मन, तूं इनका भया चेरा ॥ राग द्वेष अरु मोह समीपी, इनहं आनि मिलि घेरा। सूरत जिस दिन मन थिर होई, तिस दिन होय सबेरा ॥ १७॥
भवजल भविजन तिरें विचारें, जे इस भले संवारे। तीन काल तिन सही परीक्षा , कर्म चूर करि डारे ॥ आवत जात जगत से छूटे, लोकालोक निहारे। सूरत जो ऐसो सुख चाहौ, चेतो वेग संभारै ॥ २५॥
छछा छह रस स्वाद में रहयो छहों सत मान। छाकि रह्यो छांडत नहीं, समझत नाहिं अजान ॥ १८ ॥
टटा टाला जिन किया, ते बूडे संसार । फिरहिं भटकते जगत में, तिनका वार न पार ॥ २६॥
समझत नाहिं अजान जान, यह इन्द्रिय स्वाद में राच्यौ। आरत चिंता लाग रही है, ज्ञान ध्यान में काचौ ॥ जैसे कर्म नचावै याकू, तैसी ही विधि नाचौ । सूरत रह्यो चहूंगति भटकत,सुगुरु मिलो नहीं सांचो ॥ १९॥
तिनका वार न पार कहां है, फिरते फिरहिं विचारे। नर तिरजंचहु नरक देवगति, चारों धाम निहारे॥ जामन मरन किये बहुतेरे, सहे महा दु:ख भारे। सूरत केतिक आयु कमायो, किस पे जाए निहारे ॥२७॥
जजा जाग सुजाग नर, यह जागन की बार। जो अब कै जागै नहीं, फेर न होई संभार ॥ २०॥
ठठा ठटकि रह्यो कहा, वेगह क्यों न संभाल। छांड़ि ठाठ संसार के, तब छूटें जंजाल ॥ २८ ॥
फेर न होई संभार सार यह, जो अब कै नहिं जागै। जो जागे निर्भय पद पावै, जरा मरन भय भागै ॥ नातर फेर भ्रमे भव सागर, हाथ कछु नहिं लागै। सूरत भला होय जब तेरा, संसारी सुख त्यागै ॥ २१ ॥
तब छूटे जंजाल बावरे, बहुरि नहीं दु:ख पावै। सत्गुरु कही मान ले शिक्षा, फेर न जग में आवे॥ छांडहु संग कुमति खोटी की,यह तुमको बहकावै। सूरत संग सुमति की लीजे, शिवपुर जाय दिखावै ॥२९॥
झझा झड़प छोड़ि के, कहूं तोहि समुझाय । जामैं तें वासो कियो, सो तेरी नहिं काय ॥ २२ ॥
डडा डिग मति जाय तू , अडिग होय पद साधि। दृढ़ता करि परिणाम की, जो सुख लहै समाधि ॥ ३०॥
सो तेरी नहिं काय जाय संग, तुझे अकेला जाना। तैंने घर बहुतेरे कीने, आवत जात भुलाना ॥ थावर पंच त्रस पक्षी मानुष, भयो देव कहुं दाना। सूरत बहुत काल तैं भटका, आपा नहीं पिछाना ।। २३ ॥
जो सुख लहै समाधि व्याधि तज, आपा खोजो भाई। सिद्ध रूप तेरे घट अंतर, कहां ढूंढने जाई । जड़ पुद्गल को भिन्न जान तू,मिटै करम दुखदाई। सूरत आप आपमें साधै, यह सतगुरु फरमाई ॥ ३१ ॥
अञा नरपद है भलो, ऐसो और न काय। जेई संभाले ते तिरें, भवजल पार जु पाय ॥ २४ ॥
ढढा ढारी छांडि दे, ढिंग इनके मत जाय । कुगुरु कुदेव कुज्ञान को, तू मत चित्त लगाय ।। ३२॥
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