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रत्नत्रय में स्थिर होकर अपने आत्मा का परमात्म स्वरूप ध्यान करते हैं, वे समस्त विकारों से रहित होकर शुद्धोपयोग के बल से संसार से पार होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
ल लंकित न्यान सहावं, कुन्यानं तिजति सयल मिच्छातं । परमानंद सरुवं, न्यान मयं परम भाव सुद्धीए ॥ ७५७ ॥
अर्थ-तत्त्वज्ञानी महात्मा ज्ञान स्वभाव से अलंकृत अर्थात् विभूषित होकर। समस्त मिथ्या श्रद्धान और कुज्ञान को त्याग देते हैं तथा परमानंद स्वरूप ज्ञानमय परमभाव की शुद्धि को प्राप्त होते हैं।
मोक्षमार्गी, आत्मार्थी ज्ञानी ज्ञान स्वभाव से अलंकृत होते हैं, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र को त्यागकर आत्मा के स्वभाव में ही रमण करते हैं। इसी से वे परमानंदमयी ज्ञान स्वरूपी उत्तम भाव की सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। यही 'ल' अक्षर का अभिप्राय है।
ही सहकारी है, निश्चय श्रुतज्ञान सहित ज्ञान स्वभाव की शुद्ध भावना भाने से संसार का जन्म-मरण परिभ्रमण छूट जाता है।
यहां 'स' अक्षर का सार बताते हुए यह कहा है कि भाव श्रुतज्ञान आत्मानुभव रूप है, यही वस्तुत: सिद्धि मुक्ति का साधक है, जो भव्य जीव जिनेन्द्र भगवान के वचनों को स्वीकार कर भाव श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, वे ज्ञान स्वभाव की शुद्ध भावना भाते हुए निज स्वभाव में लीन होकर संसार के परिभ्रमण से छट जाते हैं।
થા विपनिक भाव निमित्तं, विपियो संसार सरनि मोहंध । घिउ उवसम संजुत्तं, अप्पा परमप्प निम्मलं सुद्धं ॥ ७६०॥
अर्थ- क्षायिक भाव रूप मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो संसार में परिभ्रमण कराने वाले दर्शन मोहांध को क्षय कर देते हैं तथा चारित्र मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय करके उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी पर आरोहण करते हैं वे अपने आत्मा को परमात्म रूप निर्मल शुद्ध अनुभव करते हैं।
यहां 'ष' के स्थान पर 'श' अक्षर के माध्यम से यह बताया गया है कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो भव्य जीव दर्शन मोहनीय को क्षय करते हैं तथा चारित्र मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों का उपशम करके उपशम श्रेणी अथवा क्षय करके क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं वे वीतरागी साधु शुद्धोपयोग पूर्वक अपने आत्मा को परमात्म रूप अनुभव करते हैं।
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वारापार महोछ, तरंति जे न्यान मान संजुतं । भावंति सुद्ध भावं,न्यान सहावेन संजमं सुद्धं ॥ ७५८॥
अर्थ-जो आत्मार्थी सत्पुरुष ज्ञान स्वभाव के आश्रय पूर्वक शुद्ध संयम का । पालन करते हैं, शुद्ध स्वभाव की भावना भाते हैं और अपने ज्ञान स्वभाव के ध्यान में लीन हो जाते हैं, वे पुरुषार्थी नर अपार संसार रूपी महासमुद्र से तर जाते हैं। यह संसार एक महासमुद्र है, जिसमें मोह, राग-द्वेष की तरंगें उठा करती हैं। जो तत्त्व ज्ञानी अपने स्वभाव के अनुभव पूर्वक शुद्ध संयम का पालन करते हुए शुद्धोपयोग में स्थित हो जाते हैं, वे सत्पुरुष पुरुषार्थी जीव निज स्वभाव की नौका में बैठकर घोर संसार सागर से तिर जाते हैं।
'व' अक्षर का सार बताते हुए यहां शुद्धात्मानुभूति पूर्वक संयम और ज्ञान ध्यान में रत होकर आत्म कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करने की प्रेरणा दी गई है।
सहकार धम्म धरन, सहजोपनीत सहज नंद आनंदं । संसार विक्त रुवं, अप्पा परमप्प सुद्धमप्पानं ॥ ७६१ ॥
अर्थ- मुक्ति को प्राप्त कराने वाला धर्म है, इसी को धारण करो, इसी का सहकार करो, धर्म के आश्रय से ही स्वाभाविक नंद आनंद परम समरसी भाव सहित सहज ही उत्पन्न होता है, इसका रसास्वादन रूप अनुभव संसार के रूप से विलक्षण है, इसी स्वानुभव में आत्मा अपने को शुद्धात्मा, परमात्मा रूप अनुभव करता है।
यहां 'ष' के स्थान पर 'स' का विचार करते हुए कहा है कि आत्मा का चैतन्य लक्षण स्वभाव ही धर्म है, इसको धारण करने अनुभव करने से परम वीतराग स्वरूप है लक्षण जिसका जो संसार के क्षणिक सुख से विलक्षण रूप है
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स सहकारे जिन उत्तं, सुतं संसार तारने निस्च। संसार सरनि विरयं, न्यान सहावेन भावना सुद्धं ॥ ७५९॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित श्रुतज्ञान संसार से पार होने में सदा
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