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ऐसा सहजोपनीत नंद आनंद अंतर में प्रगटता है और संसार की चार गति, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कराने वाले रागादि विकारी भावों का अभाव होने से आत्मा अपने शुद्धात्मा को परमात्म स्वरूप संवेदता है।
ह्रींकारं अरहतं,तेरह गुनठान संजदो सुद्धं । चौतीस अतिसय जुत्तो, केवल भावे मुनेअव्वो ॥ ७६२॥
अर्थ- ह्रीं अरिहंत परमात्मा का वाचक मंत्र है । अरिहंत भगवान सयोग केवली नामक तेरहवेंगुणस्थानवर्ती स्नातक संयमी, वीतरागी हैं, चौंतीस अतिशय से अलंकृत हैं, उन्हें केवलज्ञान के धारी परमात्मा जानो।
'ह' अक्षर का सार बताते हुए यहाँ कहा गया है कि ही मंत्र अरिहंत परमात्मा का द्योतक है। हीं मंत्र के द्वारा अरिहंत के स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। ही मंत्र को नासिका के अग्र भाग पर भूमध्य पर अथवा अन्य किसी उच्च स्थान पर विराजमान करके अरिहंत परमात्मा के स्वरूप का ध्यान आत्म हितकारी है। अरिहंत परमात्मा तेरहवें गुणस्थानवर्ती परम संयत, चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य और चार अनंत चतुष्टय सहित विराजमान हैं, उन्हें केवलज्ञानी परमात्मा जानो।
ज्ञानमयी अरिहंत और सिद्ध पद का अनुभवन करो। जो भव्य जीव अक्षर, स्वर व्यंजन रूप द्रव्यश्रुत के द्वारा भावश्रुत को प्राप्त कर अपने ज्ञानमयी आत्म स्वरूप को ज्ञानमय ही अनुभवते हैं वे निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार बावन अक्षरों की आध्यात्मिक जाप का अभिप्राय यह है कि अरिहंत, सिद्ध परमात्मा के समान अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभवन करें। जो जीव परमात्मा के शुद्ध गुणों का चिंतवन करते हुए अपनी आत्मा को निश्चय से परमात्म स्वरूप जानता है, अपने आत्म स्वरूप के ध्यान में लीन हो जाता है, वह समस्त कर्मों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद और अर्थ इनका व्यवहारिक स्वरूप तो बताया ही है, आध्यात्मिक स्वरूप भी स्पष्ट किया है, जो अपने आपमें अध्यात्म साधना की ओर संकेत करता है।
अक्षर- "न क्षरति इति अक्षर:" जिसका कभी क्षरण नहीं होता, नाश नहीं होता, उसे अक्षर कहते हैं। वर्णमाला में जो अक्षर हैं, उनका कभी क्षरण नहीं होता इसलिये उन्हें अक्षर कहा जाता है। निश्चय से आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती, नाश भी नहीं होता इसलिये अपना अक्षय स्वभाव ही अक्षर है।
स्वर- वर्णमाला में 'अ' से 'अ:' तक के वर्ण स्वर कहलाते हैं। कोई भी व्यंजन, बिना स्वर की सहायता के उच्चारण नहीं किया जा सकता। निश्चय से स्वर का अभिप्राय बताते हुए आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने कहा है कि सूर्य के समान प्रकाशित आत्मा का केवलज्ञान स्वभाव स्वर है।
व्यंजन- 'क' से 'ह' तक के वर्ण व्यंजन कहलाते हैं । व्यंजन का निश्चयनय से स्वरूप इस प्रकार है-"आत्मा का अनादिनिधन त्रैकालिक,एक रूप प्रत्यक्ष अनुभव गम्य स्वभाव ही व्यंजन है।
पद- अक्षरों से मिलकर शब्द बनते हैं, शब्दों के सार्थक समुदाय को पद कहते हैं। निश्चय से अपने आत्मा का रागादि विकारी भावों से रहित शुद्ध स्वभाव ही परमार्थ पद है। सिद्ध पद ही अपना वास्तविक पद है।
अर्थ-पदों से मिलकर बने हुए वाक्य का कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है, इसी प्रकार निश्चय से अपनी आत्मा का जो ज्ञान स्वभावमयी शुद्ध सिद्ध पद है, इसका अनुभव करना ही सिद्ध पद का अर्थ अर्थात् प्रयोजन है। सिद्ध पद का अनुभव करना ही सारभूत प्रयोजनीय है।
वर्णमाला-सार विपतं कम्म सुभावं, विपियं संसार सरनि सुभावं । अप्पा परमानंद, परमप्पा मुक्ति संजुत्तं ॥ ७६३ ॥
अर्थ-जिन्होंने कर्मों की समस्त प्रकृतियों को क्षय कर दिया है। संसार में जन्म-मरण,परिभ्रमण कराने में कारणभूत विभाव भावों को नष्ट कर दिया है, वह आत्मा परमानंदमयी सिद्धि मुक्ति में विराजमान सिद्ध परमात्मा हैं।
यहाँ सिद्ध परमात्मा के स्वरूप को बताने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार उन्होंने अविनाशी पद को प्राप्त कर लिया है उसी प्रकार अक्षरों के माध्यम से हम भी अपने अक्षर स्वरूप अर्थात् अक्षय जिसका कभी क्षय नहीं होता, क्षरण नहीं होता ऐसे निज पद को प्राप्त करें।
अभ्यर सुर विजन रुवं, पद विंदं सुद्ध केवलं न्यानं । न्यानं न्यान सरुवं, अप्पानं लहंति निव्वानं ॥ ७६४॥ अर्थ- पाँच अक्षर, चौदह स्वर तथा तैंतीस व्यंजनों के द्वारा शुद्ध केवल
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