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जैसे-स्फटिक मणि लाल,पीले, हरे, आदि रंग की उपाधि से उसी रूप दिखाई देने लगता है परंतु स्वभाव से उन रंगों जैसा नहीं होता, वैसे ही आत्मा स्वभाव से स्फटिक मणि के समान शुद्ध है, कर्म के उदय की डाक लगने से विभाव रूप परिणमन देखा जाता है फिर भी स्वभाव से शुद्ध ही रहता है ऐसा शुद्ध स्वभाव ही इष्ट,आराध्य, प्रयोजनीय है, यही 'फ' अक्षर का सार है।
म मम आत्मा सुद्धानं, सुखप्या न्यान देसन समग्गं । रागादि दोस रहिय, न्यान सहावेन सुख सभावं ॥ ७५४ ॥
अर्थ- मेरा आत्मा निश्चय से शुद्ध है यही शुद्धात्मा ज्ञान दर्शन गुणों से समग्र अर्थात् परिपूर्ण है, राग द्वेष आदि विकारों से रहित है। ज्ञान स्वभावमय होने से यही अपना शुद्ध स्वभाव है।
यहां 'म' अक्षर का अभिप्राय है कि मेरा आत्मा शुद्धात्मा ज्ञान, दर्शन से परिपूर्ण है, रागादि विकारी भावों से रहित परम शुद्ध है । यही शरणभूत इष्ट उपादेय है।
ब
वर सुद्ध झान निस्चं,बंभं चरनं अबंभ तिक्तं च। तिक्तं असुख भावं, सुख सहावं च भावना सुद्धं ॥ ७५२ ॥
अर्थ- निश्चय शुद्ध आत्म स्वरूप के ध्यान का जिसने वरण कर लिया अर्थात् आत्म ध्यान को स्वीकार कर लिया, वह ब्रह्म स्वरूप में आचरण करता है, उसका अब्रह्म भाव छूट जाता है, शुद्ध स्वभाव की शुद्ध भावना भाने से अशुद्ध भावों का भी त्याग हो जाता है अर्थात् छूट जाता है।
वरण कर लिया है जिसने शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान को, वह जीव मोक्षमार्गी हो जाता है।
'ब' अक्षर के द्वारा प्रेरणा देते हुए आचार्य श्री तारण स्वामी कहते हैं कि शुद्ध स्वभाव की निरंतर भावना भाओ, अशुद्ध भाव को छोड़कर अपने ब्रह्म स्वरूप में आचरण करो, यही 'ब' अक्षर का अभिप्राय है।
य जयकार जयवंत, जयवंतो सुख निम्मल भावं । मिच्छत्त राग मुक्त,न्यान सहावेन निम्मल वित्तं ॥७५५॥
अर्थ- जय हो, जय हो शुद्ध निर्मल स्वभाव की जय हो । यह अपूर्व महिमामय शुद्धात्म स्वभाव मिथ्यात्व से व राग से मुक्त है। इसी ज्ञान स्वभाव में रहने से चित्त निर्मल होता है अर्थात् पर्याय में शुद्धता आती है।
यहां 'य' के रूप में 'ज' अक्षर के माध्यम से सद्गुरु ने अपने निर्मल स्वभाव और महिमा का अंतर में अनुभव किया है। उनके अंतर में ऐसी निर्मल परिणति का उदय हुआ है कि शुद्ध स्वभाव की अंतर में जय जयकार हो रही है। जो स्वभाव मिथ्यात्व और रागादि से मुक्त है इसी शुद्ध द्रव्य स्वभाव के आश्रय से पर्याय में शुद्धता प्रगट होती है।
भद्रं मनोन्य सुद्ध, भद्रं जाती व निम्मलं सुद्ध। संसार विगत रुवं, अप्प सहावंच निम्मलंघानं ॥ ७५३॥
अर्थ- आत्मा भद्र अर्थात् मंगल रूप, मनोज्ञ अर्थात् सुंदर और शुद्ध है। निश्चय से स्वभाव से निर्मल और सिद्ध परमात्मा के समान भद्र जाति वाला है, संसार के भ्रमण स्वभाव से रहित है, ऐसे निर्मल आत्म स्वभाव का ध्यान करो।
'भ' अक्षर के द्वारा यहां अपने आत्म स्वरूप को भद्र जाति वाला कहा है। जैसे-सिद्ध परमात्मा परम शुद्ध, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट हैं, संसार में आवागमन से रहित हैं, उनके समान ही निज शुद्धात्मा संसार के परिभ्रमण से रहित है, ऐसे निर्मल आत्म स्वभाव का ध्यान ही कल्याणकारी है।
रयनत्तय संजुत्त, अप्पा परमप्प निम्मलं सुद्ध। मय मान मिच्छ विरयं, संसारे तरन्ति निम्मलं भावं ॥ ७५६॥
अर्थ- जो भव्य जीव ज्ञानी साधक रत्नत्रय अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से संयुक्त हैं तथा अपनी आत्मा निर्मल शुद्ध परमात्म स्वरूप है ऐसा अनुभव करते हैं। वे मान,माया, मिथ्यात्व आदि दोषों से छूटकर निर्मल भाव के द्वारा संसार से पार उतर जाते हैं।
यहां 'र'अक्षर के द्वारा कहा गया है कि रत्नत्रय ही प्रयोजनीय है। जो साधक ज्ञानी आत्मार्थी भव्य जीव व्यवहार रत्नत्रय के आलंबन पूर्वक निश्चय
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