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देव पूजा की सच्ची विधि है। गाथा इस प्रकार है
उवं नम: विंदते जोगी, सिद्धं भवति सास्वतं। पंडितो सोपि जानते, देव पूजा विधीयते ॥ पंडित पूजा-३॥
श्री गुरु तारण स्वामी ने इस गाथा के अतिरिक्त खातिका विशेष ग्रंथ में मंगलाचरण के रूप में ॐ नम: सिद्धम् मंत्र लिखा है तथा सम्पादित श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी के पृष्ठ ३९७,३९९ पर श्री छद्मस्थवाणी जी ग्रंथ के अध्याय २,३ और ४ का प्रारंभ ॐ नम: सिद्धम् मंत्र से किया है, इसी ग्रंथ के अध्याय ७ और ८ के प्रथम सूत्र में ॐ नम: सिद्धम् के अभिप्राय परक आत्मा परमात्मा के अभेद अनुभव को प्रगट करने वाले सूत्र लिखे हैं।
श्री ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ आचार्य तारण स्वामी कृत वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय कराने वाला ग्रंथ है, इसमें ९०८ गाथायें हैं। जिनवाणी में प्रतिपादित आगम और अध्यात्म के अनेक विषयों का निरूपण करने के साथ-साथ श्री गुरु तारण स्वामी ने ॐ नम: सिद्धम् मंत्र की जिस प्रकार सिद्धि की है और वर्णमाला का जो क्रमश: आध्यात्मिक स्वरूप स्पष्ट किया है वह अपने आप में अद्वितीय है। आगम के सिद्धातों का आध्यात्मिक अनुभव करके उसे अपनी भाषा में निबद्ध । करने वाले आचार्य श्री जिन तारण स्वामी अनूठे व्यक्तित्व से सम्पन्न थे। उन्होंने द्वादशांग वाणी के आधार पर जो सैद्धांतिक विवेचना की है उसमें यह स्पष्ट किया है कि यह वस्तु स्वरूप जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित है, तीर्थंकर भगवंतों के द्वारा कहा गया है। इसके लिये श्री तारण स्वामी ने जिन उत्तं, जिन उक्तम्, कथितं जिनेन्द्रैः, उवइलैं जिणवरेहि इत्यादि शब्दों का भक्ति भाव सहित प्रयोग किया है, इससे जिनेन्द्र परमात्मा के दिव्य संदेश पर उनका कितना अटल विश्वास था यह सिद्ध होता है।
श्री ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ में ॐ नम: सिद्धम् मंत्र की सिद्धि के पूर्व गाथा ६५८ से ७०४ तक चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। अंतिम गाथाओं में गुणस्थानातीत सिद्ध परमात्मा का स्वरूप बताते हुए कहा है
सिद्धं सिद्ध सरूवं,सिद्धं सिद्धि सौष्य संपत्तं । नंदो परमानंदो, सिद्धो सुद्धो मुनेअव्वा ॥
॥ज्ञान समुच्चय सार ७०३ ॥ अर्थ-सिद्ध परमात्मा अपने सिद्ध स्वरूप को सिद्ध कर चुके हैं। उन्होंने अपने स्वरूप में लीन होकर सिद्धि सुख की सम्पत्ति को प्राप्त कर लिया है। जो आनंद परमानंद में लीन हैं उन्हें शुद्ध सिद्ध परमात्मा जानो। इस प्रकार सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का आराधन करते हुए उन्हें अपना
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आदर्श स्वीकारते हुए ॐ नम: सिद्धम् मंत्र के हार्द को व्यक्त करने का शुभारंभ किया है। गाथा ७०५ से ७११ तक ॐ नम: सिद्धम् मंत्र की सिद्धि की है, तत्पश्चात् गाथा ७१२ से ७२८ तक चौदह स्वरों का तथा गाथा ७२९ से ७६४ तक ३३ व्यंजनों का आध्यात्मिक स्वरूप स्पष्ट किया है। इस क्रम को प्रारंभ करते हुए सर्व प्रथम ओंकार स्वरूप परमात्मा की और ॐ मंत्र की विशेषता, महिमा बताते हुए सद्गुरु कहते हैं -
उर्वकारं च ऊऊर्थ सहावेन परमिस्टी संजुत्तो। अप्पा परमप्यानं, विंद स्थिर जान परमप्या ॥ ७०५ ॥
अर्थ-ॐ मंत्र श्रेष्ठ पद है, इस मंत्र में श्रेष्ठ स्वभाव के धारी सिद्ध परमेष्ठी गर्भित हैं, वही आत्मा परमात्मा हैं, जो विंद अर्थात् निर्विकल्प, शुद्ध स्वभाव में स्थिर हो गए हैं, उन्हें परमात्मा जानो।
ॐ मंत्र को जैन और वैदिक संस्कृति में विशेषता पूर्वक माना गया है। वैसे विश्व के सभी धर्मों ने ॐ मंत्र को अपना आराध्य माना है। यह मंत्र तीन अक्षरों से मिलकर बना है- अ+उ+म्, इसका सामान्यतया अर्थ इस प्रकार लिया जाता है- अ(अमृत)+उ(उत्तम)+म(मंगल) अर्थात् जो अमृत है, उत्तम है और मंगल है। जो मनुष्य को अमृतमय बना दे, उत्तमता तक ले जाए,मंगलमय बना दे, उस मंगलमय मंत्र का नाम है 'ॐ'।
जैन दर्शन में ॐ मंत्र की महत्ता इससे ही मालूम पड़ती है कि यह कहा जाता है कि 'ॐ' मंत्र में महामंत्र णमोकार के अनुसार पंच परमेष्ठी अंतर्निहित है यथा
अरहंता असरीरा आयरिया तह उवझाया मुणिणो। पढ़मक्खररप्पिण्णो ओंकारो होदि पंच परमेट्ठी ॥
इस गाथा सूत्र में जैन दर्शन के अनुसार 'ॐ' मंत्र में पंच परमेष्ठी किस प्रकार गर्भित हैं यह बताया गया है। अरिहंत का 'अ, सिद्ध परमेष्ठी अशरीरी का 'अ', आचार्य का 'आ', उपाध्याय का 'उ' और मुनि का म्' इस प्रकार पांचों परमेष्ठियों के प्रथम-प्रथम अक्षरों का संयोग करने पर
अ+अ+आ+उ+म्-ओम् इस प्रकार 'ॐ' मंत्र पंच परमेष्ठी का वाचक मंत्र है।
सिक्ख परंपरा में परमात्मा को 'ॐकार सत्नाम' मंत्र द्वारा स्मरण किया जाता है, इसके लिए एक ॐकार सत्नाम सूत्र भी मिलता है। तिब्बतियों में 'ॐ मणि पद्मे हूं', इस प्रकार स्मरण किया जाता है। इस्लाम धर्मावलंबियों में 'आमीन' प्रचलित है, यह 'ॐ' से ही बना है। ईसाइयों में भी 'ॐ' से बने निम्न शब्द माने
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