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“ॐ नमः सिद्धम्" एवं वर्णमाला
५. ध्यान धीरज ज्ञान निर्मल, नाम तत्त गहंत ।
कहे कबीर सुनो भाइ साधो, आदि अंत पर्यंत........पढो........ का आध्यात्मिक स्वरूप
संत कबीरदास जी के इस पद से यह स्पष्ट होता है कि उनके समय में जैसा कि पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं कि अध्यात्म शिरोमणी दसम प्रतिमा ॐनमः सिद्धम् ओ ना मा सी ध म के रूप में पढ़ा जाता रहा, इसलिये कबीरदास धारी पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज ने बताया था कि ॐ नम: सिद्धम् मंत्र अत्यन्त जी ने पढ़ो मन ओ ना मा सी धंग यह कहकर अपनी आध्यात्मिक स्थिति को प्राचीन मंत्र है। प्राचीन काल में यह मंत्र विद्यालयों में पढ़ाया जाता भी रहा है। सुदृढ़ किया है। संत कबीरदास जी भी आध्यात्मिक संत थे अत: उन्होंने भी ॐ इसी प्रकार के विचार स्वर्गीय आचार्य देशभूषण जी महाराज, न्यायतीर्थ पूज्य । नमः सिद्धम् के स्वरूप को भले ही आ ना मा सीधम के रूप में पाया किन्तु उसका झुल्लक मनोहर जी वर्णी सहजानंद महाराज ने भी अपने प्रवचन चर्चाओं के । पूरा-पूरा साधना परक आध्यात्मिक चिंतन प्रस्तुत किया है। मंत्र में सिद्धम् पद दौरान व्यक्त किये थे। उनके अनुसार " ओ ना मा सी धम्" ॐ नम: सिद्धम् का । प्राप्त होता है इसके विकृत रूप में भी ॐ नमः सिद्धम् के स्थान पर ओ ना मा सी विकृत रूप है। आज से कुछ दशाब्दियों पूर्व तक इसका शुद्ध पाठ प्रचलित था। धम कहा जाने लगा। कबीरदास जी के ओ ना मा सी धंग इस वाक्य से प्रतीत शनैः शनैः अल्पश्रुत अध्यापकों की परम्परा से उपर्युक्त विकार आ गया तथापि होता है कि भजन में तुकान्त लयात्मकता लाने के लिये संभवत: उन्होंने धम के इतना तो असंदिग्ध है कि विद्यारम्भ मंगल वाचन के रूप में इसका प्रचलन अति स्थान पर धंग का प्रयोग किया है। प्राचीन है।
आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ऐतिहासिक नगरी पुष्पावती वर्तमान सोलहवीं शताब्दी भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक क्रांति का समय माना बिलहरी, जिला कटनी म.प्र. में पिता श्री गढ़ाशाह जी, माता वीर श्री देवी से जाता है। उस समय भारत के अनेक प्रांतों में आध्यात्मिक संतों का जन्म हुआ उत्पन्न हुए। बचपन से आध्यात्मिक चेतना सम्पन्न होने के कारण उनका जीवन था। जिन्होंने धर्म के नाम पर फैल रहे आडम्बर पाखंडवाद के विपरीत शुद्ध आगे चलकर आध्यात्मिक क्रांति में बदल गया। उनका समय विक्रम संवत् १५०५ अध्यात्म की अलख जगाई। संत कबीरदास जी जो आध्यात्मिक संतों में अपनी से १५७२ तक रहा (सन् १४४८ से १५१५ ई.)। इस अवधि में श्री गुरु तारण विशेषता रखते हैं। वैदिक संस्कृति के अनुसार उनका समय विक्रम संवत् १४५६ स्वामी ने आत्म साधना की श्रेष्ठ अनुभूतियों को प्राप्त करने का पुरुषार्थ किया, वे से १५७५ तक माना गया है। उन्होंने अनेकों रचनाएं लिखीं जिनमें आध्यात्मिक पूर्व संस्कारी जीव थे। तारण स्वामी के भव में उन्होंने पूर्व संस्कारों के पुण्योदय अनुभव और साधना संबंधी मार्ग का भी उल्लेख किया है। उनके द्वारा लिखित
स्वरूप वर्तमान पुरुषार्थ से अपना स्वयं का मुक्ति मार्ग तो बनाया ही, चौदह ग्रंथों भजन देश के कोने-कोने में गाये जाते हैं। उनके द्वारा लिखित एक भजन यहाँ की रचना भी की तथा जैन कुल में जन्म लेने के बावजूद जाति-पांति के बंधनों प्रस्तुत है। जिसमें उन्होंने ओ ना मा सी धम् पढ़ने की प्रेरणा देते हुए उसका को तोड़कर मानव मात्र को अध्यात्म का मार्ग बताया और जन-जन के तारणहार आध्यात्मिक स्वरूप स्पष्ट किया है। जो इस प्रकार है
बने। अपने चौदह ग्रंथों में उन्होंने वीतराग वाणी के अनुरूप अपने अनुभव और पढ़ो मन ओना मा सीधंग ॥
साधना के आधार पर आगम और अध्यात्म के सिद्धांतों को निरूपित किया। १. ओंकार सबै कोई सिरजै, सबद सरूपी अंग ।
उन्होंने पंडित पूजा ग्रंथ की गाथा ३ में ॐ नम: सिद्धम् मंत्र दिया । इस गाथा में निरंकार निर्गुण अविनाशी, कर वाही को संग ......पढो......
सिद्धम् को स्वभाव के रूप में सिद्ध किया है तथा कहा है कि सिद्ध स्वभाव का नाम निरंजन नैनन मद्धे, नाना रूप धरंत ।
अनुभव करने से जीव सिद्ध पद प्राप्त कर लेता है। कहने का अभिप्राय यह है कि निरंकार निर्गुण अविनाशी, निरखै एकै रंग .........पढ़ो..
सिद्ध स्वभाव का आश्रय लेने पर पर्याय में भी सिद्धत्व प्रगट हो जाता है। इस ३. माया मोह मगन होइ नाचे, उपजै अंग तरंग।
रहस्य को जो जानता है अर्थात् इसे अपने अनुभव से प्रमाणित कर स्वीकार कर माटी के तन थिर न रहतु है, मोह ममत के संग......पढो...
लेता है वह पंडित अर्थात् सम्यक्ज्ञानी कहलाता है और वही परमात्मा की यथार्थ ४. शील संतोष हदै बिच दाया, सबद सरूपी अंग।
पूजा विधि को जानता है कि सिद्ध परमात्मा के समान निश्चय से मेरा आत्म साध के वचन सत्त करिमानों, सिर्जन हारो संग .....पढो.....
स्वभाव भी शुद्ध है, अपने इसी निज शुद्धात्म स्वरूप में अपने उपयोग को लगाना १२६
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