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कम्मु पुराइउ जो खवइ अहिणव पेसुण देइ।
परम णिरंजणु जो णवइ सो परमप्पउ होइ॥ ७७ ॥ अर्थ-जो जीव पुराने कर्मों को खिपाता है, नए कर्मों का प्रवेश नहीं होने देता तथा जो परम निरंजन तत्त्व को नमस्कार करता है, वह स्वयं परमात्मा बन जाता है।
अण्णु णिरंजणु देउ पर अप्पा दसणणाणु ।
अप्पा सच्चउ मोक्खपउ एहउ मूढ़ वियाणु ॥ ७९ ॥ अर्थ- आत्मा ही उत्कृष्ट निरंजन देव है, आत्मा ही दर्शन ज्ञान है, आत्मा ही सच्चा मोक्षपथ है, ऐसा हे मूढ ! तू जान।
इसी बात को श्री महानंदि देव जी ने आणंदा में कहा हैचिदाणंदु साणंदु जिणु, सयल सरीरहं सोई। महाणंदि सो पूजियइ,गगणि मंडल थिरु होई-आणंदा रे ॥१॥
अर्थ- अरे आनंद को प्राप्त करने वाले योगी! संपूर्ण संकल्प-विकल्प को। रोककर अतीन्द्रिय आनंद स्वरूप चिदानंद चैतन्य भगवान की पूजा की जाती है, जो शुद्धात्मा भगवान संपूर्ण शरीर में व्याप्त है।
जो णरु सिद्धंह झाइयउ, अरि खिपंत झायेहिं। मोक्खु महापुरुणीयडउ,भव दुहु पाणि ण देहिं-आणंदारे॥१७॥
अर्थ-जो मनुष्य सिद्ध परमात्मा का ध्यान करते हैं, वे ध्यान के बल से अष्ट कर्मों को क्षय कर देते हैं। उनके लिए मोक्षनगर निकट होता है, फिर कर्म उनको संसार का दु:ख नहीं देते हैं। अरे आनंद को प्राप्त करने वाले ! फिर कर्म उनको संसार का दु:ख नहीं देता।
बंध बिहणउ देउ सिउ,णिम्मल मलह विहीण। कमलि णिवल जलबिंदु जिम,णवितसपापुणपुण्णु-आणंदारे॥१८॥
अर्थ- जो सभी प्रकार के बंधनों से विहीन है, सभी मलों से रहित है, निर्मल है, वह देव शिव है। जिस प्रकार कमलिनी के पत्ते पर स्थित पानी की बूंद उससे सर्वथा भिन्न रहती है, उसी प्रकार शिव पाप-पुण्य से सर्वथा भिन्न है, वह इनसे अछूता रहता है। अरे आनन्द को प्राप्त करने वाले ! उसी प्रकार शिव पाप-पुण्य से सर्वथा भिन्न है।
देउ सचेयणु झाइयइ,तं जिय परु विवहारु। एक समउ झाणे रहहि, धग धग कम्मु पयालु-आणंदा रे ॥२०॥
अर्थ- जो चैतन्य मूर्ति शुद्धात्मा (त्रैकालिक ध्रुव एक ज्ञायक भाव) का ध्यान करता है, वह निश्चय से परमात्मा है अन्य सभी व्यवहार है। जो एक समय
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के लिए भी अपने शुद्धात्मा के ध्यान में स्थिर रहता है, उसके कर्मरूपी पयाल धग-धग करके जल जाता है। अरे आनंद को प्राप्त करने वाले ! उसके कर्मरूपी पयाल धग-धग करके जल जाता है। सो अप्या मुणि जीव तर अहंकारि परिहारू।
सहज समाधिहि जाणियइ,जे जिण सासण सात-आणंदा रे ॥ २२ ॥
अर्थ- हे जीव ! अहंकार ( मैं और मेरापना) अर्थात् पर में आत्म बुद्धि छोड़कर तू अपने आपका अनुभव कर । निर्विकल्प सहज समाधि में आत्मा का अनुभव होता है जो जिनशासन का सार है। अरे आनंद को प्राप्त करने वाले ! यही जिन शासन का सार है। श्री पद्मसिंह मुनि ज्ञान सार में कहते हैं
मणवयणकायमच्छरममत्ततणुधणकणाइ सुण्णोऽहं।
इय सुण्णझाणजुत्तो णो लिप्पइ पुण्णपावेण ॥ ४४ ॥ अर्थ- मेरे न मन है, न वचन है, न शरीर है । मैं ईर्ष्या, द्वेष, ममत्व, शरीर, धन के लेश आदि से भी शून्य हूं। इस प्रकार शून्य ध्यान में लीन योगी पुण्य-पाप से लिप्त नहीं होता है।
सुद्धप्पा तणुमाणो णाणी चेदणगुणोहमेकोऽहं ।
इय झायंतो जोई पावइ परमप्पयं ठाणं ॥४५॥ अर्थ-शुद्ध आत्मा शरीर प्रमाण है, ज्ञानी है, चैतन्य गुण का भंडार है, ऐसा मैं एकाकी हूं। ऐसा ध्यान करने वाला योगी परमात्म पद रूप स्थान को प्राप्त करता है।
भमिदे मणुबावारे भमंति भूयाइ तेसु रायादि।
ताण विरामे विरमदि सुचिरं अप्पा सरुवम्मि ॥ ४६॥ अर्थ- मन के व्यापार में भ्रमण करने पर अर्थात् मन के विषयों में चंचल होने पर प्राणी भ्रमित होते हैं। उनमें इष्ट-अनिष्ट विषयों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न होता है। उनके रुकने पर आत्मा अपने स्वरूप में चिरकाल के लिए विराम ले लेता है अर्थात् मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।
अम्भतरा य किच्चा बहिरत्थ सुहाइ कुणह सुण्णतणुं।
णिच्चिंतो तह हंसो पुंसो पुण केवली होई॥४७॥ अर्थ-बाह्य पदार्थों से होने वाले सुख ज्ञान आदि को अभ्यन्तर करके अर्थात् अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख से सम्पन्न होकर शरीर से शून्य हो जाओ अर्थात् शारीरिक सुखादि की ओर से एकदम अपनी दृष्टि को हटा लो, ऐसा होने पर चिंता रहित श्रेष्ठ पुरुष केवलज्ञानी हो जाता है।
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