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जाते हैं- १. OMNIFIE (सर्वोत्पादक) २. OMNIFORM (सर्वरूप वाला) नम: सिद्धम्', इस मंत्र में प्रथम शब्द 'ॐ' है, इसमें बिंदु सिद्ध परमात्मा का ३.OMNIPOTENT (सर्वशक्तिमान) ४. OMNIPRESENT (सर्वव्यापक) प्रतीक है। सिद्ध परमात्मा की विशेषता बताते हुए सद्गुरु श्री जिन तारण स्वामी ५.OMNISCIENCE (अनंतज्ञान) ६.OMNISCIENT (सर्वज्ञ)
ने कहा हैवैदिक संस्कृति में भी 'ॐ' मंत्र का विशेष महत्व है, उपनिषद् आदि ग्रंथों न्यानं सब सहावं,न्यान मयं परमप्य संसुद्ध। में इसकी विशद् विवेचना पाई जाती है।
न्यानं न्यान सरुव, अप्पा परमप्प सुखमप्पानं ॥ ७०६ ॥ मुण्डक उपनिषद् में कहा गया है
अर्थ-सिद्ध परमात्मा ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव में लीन हैं। वे परम शुद्ध प्रणवो धनुः शरो हि आत्मा ब्रह्म तल्लक्यमुच्यते।
परमात्मा मात्र ज्ञानमय हैं और ज्ञान ही ज्ञान है स्वरूप उनका अर्थात् वे प्रतिपल अप्रमत्तेन बेद्धव्यं शरबत्तन्मयो भवेत् ॥
अपने ज्ञान स्वरूप का अनुभव करते हैं, वे परमात्मा आत्म स्वरूप में स्थित (२-२-४)
शुद्धात्मा हैं। अर्थ-प्रणव (ॐ) धनुष है, आत्मा बाण है, ब्रह्म उसका लक्ष्य बताया पं. श्री दौलतराम जी ने परमात्मा के सकल और निकल दो भेदों की चर्चा गया है, सावधानी से उसे वेधना चाहिए और बाण की तरह उसमें तन्मय हो जाना करते हए सिद्ध परमात्मा का स्वरूप इस प्रकार बताया है - चाहिए।
ज्ञान शरीरी त्रिविध कर्म मल वर्जित सिद्ध महंता। योग साधना की अपेक्षा 'ॐ' मंत्र को नाद का प्रथम बीजाक्षर कहा है। इस ते हैं निकल अमल परमातम भोगें शर्म अनंता॥ प्रकार सभी परम्पराओं के मूलमंत्रों का आरंभ 'ॐ' से होता है क्योंकि 'ॐ' से
॥तीसरी दाल,छंद६ पूर्वार्द्ध ॥ मंत्र की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। 'ॐ' प्रणव है क्योंकि इसके द्वारा मनुष्य 'ॐ नम: सिद्धम्' मंत्र की सिद्धि का प्रारंभ करते हुए श्री गुरु तारण स्वामी अंतर की आत्म शक्ति को आत्मसात् कर सकता है। विश्व की समस्त ध्वनियां, ने मंत्र के प्रारंभ में स्थित 'ॐ' के वाच्य स्वरूप ॐकारमयी सिद्ध परमात्मा का विस्फोट के स्वर तथा अरिहंत तीर्थंकर परमात्मा की दिव्यध्वनि ॐकार रूप में स्वरूप बताया। आगे उन सिद्ध परमात्मा के समान ही स्वभाव से मैं आत्मा अर्थात् निरक्षरी होती है।
परमात्मा हूं, यह कहते हैं - जैनदर्शन के अनुसार 'ॐ' मंत्र व्यवहार से पंच परमेष्ठी का वाचक तथा ममात्मा ममल सुर्व सुखसहावेन तिअर्थ संजुत्त। निश्चय से निज शुद्धात्म स्वरूप का वाचक मंत्र है। शुद्धात्म स्वरूप के साधक संसार सरनि विगतं अप्या परमप्य निम्मल सर्व ॥ ७०७ ॥ 'ॐ' मंत्र के माध्यम से अपने विंद स्वरूप सिद्ध स्वभाव की साधना आराधना अर्थ-सिद्ध परमात्मा के समान ही निश्चयनय से मेरा आत्मा कर्म मल करते हैं।
रहित ममल और शुद्ध है, शुद्ध स्वभाव में तन्मय रत्नत्रय स्वरूप है, संसार के 'ॐ' मंत्र में जो मूल तीन अक्षर हैं अ, उ और म् इनके अन्य प्रकार से भी। परिभ्रमण से रहित है, वास्तव में यह आत्मा ही निर्मल शुद्ध परमात्मा है। अर्थ होते हैं और यह मंत्र तीन लोक, सिद्ध शिला और सिद्ध परमात्मा आदि को इन तीनों गाथाओं में ॐकार स्वरूप सिद्ध परमात्मा और ॐकार स्वरूप व्यक्त करता है। जैसे अ अर्थात् अधोलोक, उ अर्थात् ऊर्ध्वलोक और म् अर्थात् निज शुद्धात्मा का स्वभाव से निर्णय कर स्वीकार किया है कि जैसे सिद्ध परमात्मा मध्यलोक, इस प्रकार यह तीन अक्षर तीन लोक के प्रतीक हैं। मंत्र के ऊपर जो हैं निश्चय से उनके समान ही मैं आत्मा हूं। आगे कहते हैं कि ऐसा अनुभवन अर्ध चंद्र है वह सिद्ध शिला का प्रतीक है तथा अर्धचंद्र के ऊपर की बिंदी विद करना यही ॐ नम: का अभिप्राय हैस्वरूप में लीन सिद्ध परमात्मा का प्रतीक है, इस प्रकार 'ॐ' मंत्र आध्यात्मिक उवं नमः एकत्वं पद अर्थ नमस्कार उत्पन्नं । अर्थों में अपना विशेष स्थान रखता है।
उवंकारं च विंदं विंदस्थं नमामि तं सुद्धं ॥ ७०८ ॥ तीन लोक के ऊपर सिद्ध परमात्मा अपने स्वरूप में लीन हैं, निर्विकल्प हैं अर्थ- सिद्ध परमात्मा के समान निज शुद्धात्म स्वभाव से एकत्व होना इसलिए सद्गुरु तारण स्वामी ने कहा है- "विंद स्थिरं जान परमप्पा"अर्थात् अर्थात् निज परमात्म स्वरूप का अनुभवन करना ही ॐ नम: एकत्व है, इस जो विंद (निर्विकल्प) स्वरूप में स्थित हैं, लीन हैं, उन्हें परमात्मा जानो। 'ॐ अनुभव का लाभ यह है कि जिस प्रयोजनीय सिद्ध शुद्धात्म पद को नमस्कार १३०
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