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वीर्य और अनन्त सुख का धारक हूं । मैं अनंत ज्ञानरूप नेत्र का धारक हूं, मैं अनंत महिमा का आश्रय हूं, आधार हूं, मैं सर्ववित् हूं, सर्वदर्शी हूं, अनंत चतुष्टय का धारक हूं। मैं परमात्मा हूं, मैं प्रसिद्ध हूं, मैं बुद्ध हूं , मैं स्वचैतन्यात्मक हूं, मैं परमानंद हूं, मैं सर्व प्रकार के कर्मबंधनों से रहित हूं | मैं एक हूं, अखंड हूं, निर्ममत्वरूप हूं, मैं उदासीन हूं, मैं ऊर्जस्वी हूं, मैं निर्विकल्प हूं, आत्मज्ञ हूं, केवलदर्शन और केवलज्ञान रूप दो नेत्रों का धारक हूं। मैं ज्ञान दर्शन रूप उपयोगमय हूं, मैं कल्पनातीत वैभव का धारक हूं, मैं स्वसंवेदनगम्य हूं, मैं सम्यक्ज्ञान गम्य हूं, मैं योग गोचर हूं, मैं सर्वज्ञ हूं, सर्ववेत्ता हूं, सर्वदर्शी हूं, सनातन हूं, मैं जन्म जरा और मृत्यु से रहित हूं, मैं सिद्धों के अष्ट गुणों का धारक हूं। मैं अष्ट कर्मरूप काय से, कार्माण शरीर से और सर्वकर्मों से रहित हूं, मैं निश्चयत: जगज्ज्येष्ठ हूं, मैं जिन हूं, परमार्थ से मैं ही स्वयं ध्यान करने योग्य हूं, वंदना करने योग्य हूं और अतिशय माहात्म्य का धारक हूं। आचार्य योगीन्दुदेव योगसार ग्रंथ में कहते हैं -
सुद्धप्पा अरु जिणवरह, भेउ म किं पि वियाणि।
मोक्खहं कारण जोइया, णिच्छइ एउ विजाणि ॥ २०॥ अर्थ- शुद्धात्मा और जिन भगवान में कुछ भी भेद न समझो, मोक्ष का कारण एक मात्र यही है, ऐसा निश्चय से जानो।
अरिहन्तु वि सो सिद्ध फड, सो आयरिउ वियाणि । सो उबझायउ सो जि मुणि, णिच्छा अप्पा जाणि ॥ १०४॥ सो सिउ संकरु वि. सो,सोरुदवि सोद्धा सो जिण ईसक बंभु सो, सो अणंतु सो सिद्ध ॥ १०५॥ एव हिलक्खण लक्खियउ,जो परुणिकाल देउ।
देह माहि सो वसइ, तास ण विजाइभेउ ॥ १०६॥ अर्थ- निश्चय नय से आत्मा ही अर्हन्त है, वही निश्चय से सिद्ध है और वही आचार्य है और उसे ही उपाध्याय तथा मुनि समझना चाहिए। वही शिव है, वही शंकर है, वही विष्णु है, वही रुद्र है, वही बुद्ध है, वही जिन है, वही ईश्वर है, वही ब्रह्मा है, वही अनंत है और सिद्ध भी उसे ही कहना चाहिए। इन लक्षणों से युक्त परम निष्कल देव जो देह में निवास करता है, उसमें और इनमें कोई भेद नहीं है।
जो परमप्पा णाणमउ सो हउ देउ अणंतु।
जो हर सो परमप्पु परु एहउ भावि णिभंतु ॥ १७५॥ अर्थ- जो परमात्मा ज्ञान स्वरूप है, वह मैं ही हूं, जो कि अविनाशी देव
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स्वरूप हूं। वही उत्कृष्ट परमात्मा है, इस प्रकार निस्संदेह भावना कर।
आचार्य देवसेन तत्त्वसार में कहते हैंमल रहिओ णाणमओ, णिवस सिदिए जारिसो सिखा। तारिसओ देहस्थो, परमो बंभो मुणेयध्वो ॥ २६॥
अर्थ- जैसा कर्म मल से रहित ज्ञानमय सिद्धात्मा सिद्धलोक में निवास करता है, वैसा ही परम ब्रह्म स्वरूप परमात्मा देह में स्थित जानना चाहिए।
णो कम्म कम्मरहिओ, केवलणाणाइ गुण समिद्धो जो। सोई सिद्धो सुद्धो, णिच्चो एको णिरालंबो ॥ २७॥
अर्थ- जो सिद्ध जीव शरीरादि नो कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म तथा राग-द्वेषादि भाव कर्म से रहित है, केवलज्ञानादि अनंत गुणों से समृद्ध है. वही मैं सिद्ध हूं, शुद्ध हूं ,नित्य हूं, एक स्वरूप हूं और निरालंब हूं।
सिद्धोहं सुद्धोहं, अणंतणाणाइ समिद्धोहं । देह पमाणो णिच्चो, असंखदेसो अमुत्तो य ॥ २८ ॥
अर्थ- मैं सिद्ध हूं, शुद्ध हूं, अनंत ज्ञानादि से समृद्ध हूं, देह प्रमाण हूं, मैं नित्य हूं, असंख्य प्रदेशी और अमूर्त हूं।
कुंदकुंदाचार्य नियमसार में कहते हैंणिइंडो णिबंदो णिम्ममो णिकलो णिरालंबो। णीरागो णिहोसो जिम्मूढो णिन्मयो अप्पा ॥४३॥
अर्थ- आत्मा निर्दड, निवद, निर्मम, निःशरीर, निरालंब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ और निर्भय है।
णिग्गंथो णीरागो णिस्सलो सयल वोस णिम्मुळो। णिलामो णिजोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्या ॥४४॥
अर्थ- आत्मा निर्ग्रन्थ,नीराग,नि:शल्य, सर्वदोष विमुक्त, निष्काम, नि:क्रोध, निर्मान और निर्मद है।
जारिसिया सिद्धप्या भव मलिय जीव तारिसा होति। जरमरण जम्म मुक्का अद्वगुणा लंकिया जेण ॥ ४७॥
अर्थ- जैसे सिद्धात्मा हैं, वैसे ही भवलीन संसारी जीव हैं, जिससे वे संसारी जीव सिद्ध आत्माओं की भांति जन्म, जरा, मरण से रहित और आठ गुणों से अलंकृत हैं।
असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा। जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया ॥ ४८ ॥ अर्थ-जिस प्रकार लोकाग्र में सिद्ध भगवान अशरीरी अविनाशी अतीन्द्रिय
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