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अर्थ- आत्मा परमात्मा के समान है, जब अपने चित्त में कोई विकल्प न करता हो, शुद्ध भाव में स्थिर हुआ आत्मा ही परमात्मा है।
देवो परमिस्टी मइयो, लोकालोक लोकितं जेन।
परमप्पाशानं मइयो, अप्पा देह मझमि ॥३२४॥ अर्थ-देव जो परमेष्ठीमयी परम पद में स्थित हैं, जो लोकालोक के स्वरूप को देखते जानते हैं,जो ज्ञानमयी परमात्मा हैं वैसा ही आत्मा इस देह में विराजमान है अर्थात् आत्मा ही परमात्म स्वरूप है। आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ में कहा है -
ममात्मा परमं सुद्ध, मय मूर्ति ममलं धुवं ।
विद स्थानेन तिस्टंति, नमामिह सिद्ध धुवं ॥४॥ अर्थ- मेरा आत्मा परम शुद्ध है, ममल ध्रुव स्वरूपमय चिदानंद मूर्ति है, निश्चय से विंद स्थान में विराजमान है, ऐसे शाश्वत सिद्ध स्वभाव को मैं नमस्कार करता हूं।
ममात्मा ममलं सुद्धं,ममात्मा सुद्धात्मनं ।
देहस्थोपि अदेही च,ममात्मा परमात्म धुवं ॥४४॥ अर्थ- मेरा आत्मा ममल, शुद्ध है, मेरा आत्मा ही शुद्धात्मा है। देह में स्थित होते हुए भी मेरा आत्मा ध्रुव स्वरूप परमात्मा है।
त्रि अभ्यरंच एकत्वं,ॐनमापि संजतं।
नम नमामि उत्पन्न, नमामिहं विंद संजतं ॥४५॥ अर्थ-ॐ नम: का अभिप्राय है, ओंकार स्वरूप को नमस्कार जो अनुभूति स्वरूप है, अपने ओंकार स्वरूप के अनुभव से संयुक्त हाना ही ॐ नम: अर्थात् तीन अक्षर की एकता है। इस अनुभव से जिस स्वरूप को नमस्कार किया जाता है वह उत्पन्न हो जाता है, इस निर्विकल्प विंद स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूं।
अप्पा परमप्य तुल्यं च, परमानंद नंदितं ।
परमात्मा परमं सुद्ध, ममलं निर्मलं धुर्व ॥७९॥ अर्थ- आत्मा परमात्मा के समान है और परमानंद से आनंदित है। यह परमात्म स्वरूप परम शुद्ध ममल निर्मल और ध्रुव है। आचार्य श्री जिन तारण स्वामी उपदेश सार ग्रंथ में कहते हैं -
आद्यं अनादि सुद्ध, उवइटुं जिनवरेहि सेसानं ।
संसार सरनि विरयं, कम्म पय मुक्ति कारनं सुद्धं ॥२॥ अर्थ- जिनवरेंद्र तीर्थंकर भगवन्तों ने शिष्यों को उपदेश दिया है कि यह आत्मा अनादिकाल से शुद्ध है। स्वभाव से यह संसार के परिभ्रमण से विरक्त है।
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कर्मों को क्षय करने में और मुक्ति को प्राप्त करने में यही शुद्ध कारण है। आचार्य तारण स्वामी ने ममल पाहुड ग्रंथ में कहा है
स्वामी देहाले सुइसिखाले भेउ न रहे।
जं जाके अन्मोय सन्यानी मुक्ति लहै ॥२॥ अर्थ- हे स्वामी (आत्मन्)! जो परमात्मा सिद्धालय में विराजमान है, वैसा ही परमात्मा इस देहालय में विराजमान है, इसमें कोई भेद नहीं है। जो ज्ञानी इसकी अनुमोदना करते हैं, वे मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
(न्यान अन्मोय पचीसी फूलना,३९/२) श्रीमद् सकलकीर्ती गणी ने समाधि मरणोत्साह दीपक में लिखा है
सिद्धोऽहं सिद्ध रूपोऽहं, गुणः सिद्ध समो महान। त्रिलोकान निवासी,चारूपोऽसंख्य प्रदेशवान ।। १५०॥ शुद्धोऽहं विशुद्धोऽहं, नि:कर्माऽहं भवातिग:। मनोवाकाय दूरोऽहं, चात्यक्षोऽहं गतः क्रियः ॥ १५१॥ अमूर्तो ज्ञान रूपोऽहं, अनन्त गुण तन्मय :। अनन्त दर्शनोऽनन्त, वीयोऽनंत सुखात्मकः ॥ १५२ ॥ अनन्त ज्ञान नेत्रोऽहमनन्त महिमाऽऽश्रय:। सर्व वित्सर्वदर्शी चाहमनन्त चतुष्टयः ॥ १५३॥ परमात्मा प्रसिद्धोऽहं युद्धोऽहं स्वचिदात्मक:। परमानन्द भोक्ताहं विगताऽखिलबन्धन:॥ १५४॥ एकोऽहं निर्ममत्वोऽहमुदासीनोऽमूर्जित:। निर्विकल्पोऽहमात्मज्ञोऽहं दृक्केवल लोचन:॥ १५५॥ उपयोगमयोऽहं च कल्पनातीत वैभवः । स्वसंवेदन संज्ञान गम्योऽहं योग गोषर:॥१५६॥ सर्वज्ञः सर्ववेत्ताऽहं सर्वदर्शी सनातनः। जन्म मृत्यु जरातीतोऽहं सिद्धार गुणात्मकः॥१५॥ त्यक्ताट कर्म कायोऽहं जगज्ज्येष्ठोऽहमञ्जसा।
जिनोऽहं परमार्थेन ध्येयो वंद्यो महात्मवान ॥ १५८॥ अर्थ- मैं सिद्ध हूं, सिद्ध रूप हूं ,मैं गुणों से सिद्ध के समान हूं , महान हूं, त्रिलोक के अग्रभाग पर निवास करने वाला हूं ,अरूपी हूं ,असंख्यात प्रदेशी हूं।
मैं शुद्ध हूं, मैं निष्कर्मा हूं , मैं भवातीत हूं, संसार को पार कर चुका हूं, मैं मन, वचन, काय से दूर हूं ,मैं अतीन्द्रिय हूं, इन्द्रियों से परे हूं, मैं क्रिया रहित निष्क्रिय हूं। मैं अमूर्त हूं, ज्ञान रूप अनन्त गुणात्मक हूं, मैं अनन्त दर्शन, अनन्त
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