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श्री देवसेनाचार्य महाराज ने कहा है
गमणागमण विहीणो फंदणचलणेहि विरहिओ सिद्धो। अग्याबाह सुहत्थो परमद्वगुणेहि संजुत्तो। लोयालोयं सर्व जाणइ पेच्छड करणकमरहिये । मुत्तामुत्ते दध्ये अणंतपशाय गुणकलिए। धम्माभावे परदो गमणं णस्थित्ति तस्स सिखस्स। अत्था अणंतकाल लोयगणिवासिङ होउं॥ असरीरा जीवघणा चरमसरीरा हवंति किंचूणा।
जम्मणमरणविमुळा णमामि सब्वेपुणो सिद्धा॥ अर्थ-सिद्ध भगवान गमन-आगमन रहित हैं, हलन-चलन रहित हैं, बाधा रहित सुख में लीन हैं, परमशुद्ध आठ गुण सहित हैं। बिना इंद्रिय और मन की सहायता के कामरहित सर्व लोकालोक को वमूर्तीक-अमूर्तीक द्रव्यों को अनंत गुण पर्याय सहित देखते जानते हैं।
धर्म द्रव्य लोक के बाहर नहीं है इसलिए सिद्ध भगवान का गमन लोक के बाहर नहीं होता, वे लोक के अग्र भाग में अनंत काल तक निवास करते हैं। समस्त सिद्ध परमात्मा अशरीरी हैं तथा वे जीव के स्वरूपमय घनाकार हैं, अंतिम शरीर से किंचित् न्यून आकार में हैं, जन्म-मरण से रहित हैं, ऐसे सिद्ध भगवंतों को मैं बारंबार नमस्कार करता हूं। १४३
इस प्रकार जिनने आठों कर्मों को क्षय करके मुक्त दशा को प्राप्त कर लिया ऐसे सिद्ध परमात्मा की अनेकों विशेषतायें हैं, उनकी महिमा अनुभवगम्य है। आचार्य नेमिचंद्र महाराज ने लिखा है
अट्ठविहकम्मवियला, सीवी भूवा णिरंजणा णिच्चा।
अवगुणा किदकिच्चा, लोयम्गणिवासिणो सिद्धा॥ अर्थ-जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनंत सुख रूपी अमृत के अनुभव करने वाले शांतिमय हैं, नवीन कर्मबंध की कारणभूत मिथ्यादर्शन आदि प्रकृतियाँ और भावकर्मरूपी अंजन से रहित हैं।
सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अव्याबाध,अवगाहन,सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व यह आठ गुण जिनके प्रगट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं अर्थात् जिनको कोई कार्य करना बाकी नहीं रहा है, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं। १४४ १४३. तत्वसार, श्री देवसेनाचार्य, गाथा ६८,६९,७०,७२ १४४. गोम्मटसार जीवकाण्ड, नेमिचंद्राचार्य, गाथा ६८
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सिद्ध भगवान को नमस्कार करने का प्रयोजन
सिद्ध परमात्मा ने अनंत गुणों को प्रगट कर लिया है वे देवाधिदेव हैं। यह देव संज्ञा सिद्ध भगवान में ही शोभती है, चार परमेष्ठियों की गुरु संज्ञा है। सिद्ध परमेष्ठी जो सर्वतत्त्व को प्रकाशित करते हुए भी ज्ञेय रूप नहीं परिणमते हैं, अपने स्वभाव रूप ही रहते हैं, ज्ञेय को जानते मात्र हैं। वह जानना भी किस प्रकार है? जो यह समस्त ज्ञेय पदार्थ मानो शुद्ध ज्ञान में डूब गए हैं या प्रतिबिंबित हुए हैं। इस प्रकार सिद्ध परमात्मा असंख्यात प्रदेशमय शांतरस से परिपूर्ण हैं तथा ज्ञानरस से आल्हादित हैं। शुद्ध अमृत ऐसे परम रस को ज्ञानांजलि से निरंतर पान करते रहते हैं। जिस प्रकार चंद्रमा के विमान से अमृत झरता है वह दूसरों को आल्हादित करता है, आनंद उपजाता है, इसी प्रकार सिद्ध भगवान आप स्वयं तो ज्ञानामृत पीते हैं तथा उसी में आचरते हैं जिससे जगत के जीवों को आल्हाद और आनंद उपजता है। कहा भी है
गुण अनंतमय परम पद, श्री जिनवर भगवान।
शेय लक्ष्य है शान में, अचल महा शिवथान ।।१४५ उन भगवान का नाम स्मरण, स्तुति और ध्यान करने से भव्य जीवों के आताप विला जाते हैं, परिणाम शांत हो जाते हैं, स्व-पर की शुद्धता होती है। जो भव्य जीव ज्ञानामृत का पान करते हैं उन्हें निज स्वरूप की प्रतीति हो जाती है।
ऐसे शुद्ध सिद्ध भगवान जयवंत प्रवर्तो । उन्हें ॐ नमः सिद्धेभ्य: मंत्र के द्वारा बार-बार नमस्कार हो। उन्हें नमस्कार करने का प्रयोजन है उन जैसे गणों की प्राप्ति करना, स्वयं संसार सागर से मुक्त होना।
जिस प्रकार आचार्य उमास्वामी ने कहा हैमोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म भूभृताम् । ज्ञातारं विश्व तत्वानाम् , वन्दे तद्गुण लब्धये ॥
अर्थ- मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पर्वतों को भेदन करने वाले तथा विश्व के समस्त तत्वों को जानने वाले परमात्मा की उनके गुणों की प्राप्ति के लिए वंदना करता हूं। १४६
अरिहंत भगवान और सिद्ध भगवान देवत्व की श्रेणी में आते हैं वे हमारे आदर्श हैं, उनके गुणों की प्राप्ति करने के प्रयोजन से उन्हें नमस्कार किया जाता है। भगवान के स्वरूप का आराधन करके अपने आत्मा का सिद्ध स्वरूप ही
१४५.मंदिर विधि, तारणतरण भाव पूजा १४६.तत्वार्थ सूत्र, आचार्य उमास्वामी, मंगलाचरण
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