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साधने योग्य है। सम्यकदृष्टि श्रावक, साधु, अरिहंत भी अपने सिद्ध स्वरूप का निरंतर ध्यान करते हैं। सभी भव्य जीवों को परमात्मा के स्वरूप का चिंतन मनन करके अपने आत्मा को सिद्ध के समान ध्याना चाहिए।
जयतु जय ॐ नमः सिद्धम्
ॐ नमः सिद्धेभ्यः इस पवित्र मंत्र में अनंत सिद्ध भगवंतों को नमस्कार किया गया है। जैन दर्शन में परमात्मा को दो रूपों में बताया है- कार्य परमात्मा और कारण परमात्मा । जो जीव परमात्म पद प्राप्त कर चुके हैं अर्थात् जिन्होंने पर्याय में परमात्म पद की प्राप्ति रूप कार्य सिद्ध कर लिया है वे कार्य परमात्मा कहलाते हैं तथा रत्नत्रयमयी अभेद परमशुद्ध पारिणामिक भावमयी शुद्धात्मा ध्रुव स्वभाव को कारण परमात्मा कहा गया है। कारण परमात्मा के आश्रय ही धर्म की प्रगटता होती है यही धर्म जीव को कार्य परमात्मा बना देता है।
अपने आत्मा के शुद्ध सिद्ध स्वभाव का अनुभवन करना ॐ नमः सिद्धम् मंत्र का अभिप्राय है। इस आत्मानुभूति से ही आत्म कल्याण का मार्ग बनता है इसलिए कल्याण के लिए हमें प्रतिक्षण अपने सिद्ध स्वरूप का आराधन और अनुभव करना चाहिए कि मैं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा ज्ञान स्वभाव मात्र हूं, चैतन्य सत्ता मात्र हूं। यदि अपने इस स्वभाव से विमुख होकर पर्याय दृष्टि से देखेंगे तो परमार्थ स्वरूप का अनुभवन नहीं होगा इसलिए समस्त पर्याय दृष्टि और संयोग से परे होकर मैं स्वभाव से परिपूर्ण शुद्ध अनंत गुण स्वरूप सिद्ध के समान शुद्धात्मा हूं, ज्ञानमात्र हूं ऐसा अनुभव करें। आचार्य योगीन्दुदेव ने कहा है
जेहउ निम्मलु णाणमऊ, सिद्धिहिं णिवसइ देउ । तेहऊ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ । अर्थ- जैसा केवलज्ञानादि प्रगट स्वरूप कार्य समयसार, त्रिकर्मोपाधि रहित, केवलज्ञानादि अनंत गुण रूप सिद्ध परमेष्ठी देवाधिदेव परम आराध्य परमात्मा मुक्ति में निवास करता है, वैसा ही सब लक्षणों सहित परब्रह्म शुद्ध बुद्ध स्वभाव परमात्मा शरीर में तिष्ठता है इसलिए हे प्रभाकर भट्ट ! तू सिद्ध भगवान में और अपने में भेद मत कर। १४७
आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने अपने सिद्ध स्वभाव का आराधन और अनुभवन किया। उन्होंने केवलमत के खातिका विशेष नामक ग्रंथ में जहां एक ओर संसार के स्वरूप का वर्णन किया है वहीं संसार से छूटने मुक्त होने के लिए
१४७. परमात्म प्रकाश, योगीन्दुदेव, अध्याय १/२६
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अपने स्वरूप का आश्रय लेने की प्रेरणा देते हुए कहा हैसिद्ध ध्रुव स्वभाव |
अर्थ- आत्मा का ध्रुव स्वभाव ही सिद्ध स्वभाव है, ध्रुव तत्त्व है, कारण और कार्य परमात्मा है, वही तत्त्व है, परम ध्रुव, परम सत्य है । १४८
अपना इष्ट और आराध्य एक मात्र यही सिद्ध स्वभाव है। श्री जिन तारण स्वामी 'ॐ नमः सिद्धम्' मंत्र में जो अभिप्राय है, उसे स्पष्ट करते हुए कहते हैंॐ नमः उवन सिद्ध नमो नमः ॥
ओंकार निज निराकार निर्विकार नित्य निरंजन निज निजानंद निर्भर निःशेष द्रव्य भाव नो कर्मादि रहित शुद्ध स्वभाव भावस्य चिच्चैतन्यात्मनः ओंकार स्वभावस्यैव पर्यायवाची ॐ इति । तस्मै ओंकाराय शुद्ध स्वरूपाय नमो नमस्कारं करोमि । शुद्ध स्वभावं स्वभावे प्रतिष्ठाप्यतमेव तस्मिन्नेव वा स्वरूपाचरणं करणीयमिति निश्चय मंगलं भाव नमस्कारमिति सिद्धम् । स्वरूपे स्वात्मनिस्वरूपस्योदयं प्राप्तः इति उवन नाम स एवनादि शुद्ध सिद्धात्मानिश्चयेन तं उवन सिद्धं तस्मै उवन सिद्धाय नमः । निजात्मने
परम स्वरूपाय नमः ।
आचार्य तारण स्वामी द्वारा रचित श्री छद्मस्थवाणी ग्रंथ की टीका समाजरत्न स्व. पूज्य श्री ब्र. जयसागर जी महाराज द्वारा की गई है। उपर्युक्त संस्कृत भाषा निबद्ध अंश इसी टीका का है, उन्होंने टीका का काव्य अर्थ, विशेषार्थ पद्यानुवाद आदि अनेक बिंदुओं के साथ यह टीका की है, जिसका सार संक्षिप्त इस प्रकार है
ओंकाराय च सिद्धाय उवनाय नमो नमः । स्वानुभूत्यां प्रसिद्धाय स्वसिद्धाय नमो नमः ॥
अर्थ - ओंकार शुद्धात्मा को नमस्कार हो, मेरे उवन सिद्ध शुद्ध स्वभाव को नमस्कार हो ।
ओंकार स्वरूप निज निराकार निर्विकार नित्य निरंजन निज निजानंद निर्भर सर्व द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म से रहित शद्ध स्वभाव चित् चैतन्य आत्मा के ओंकार स्वभाव के ही पर्यायवाची ॐ इस प्रकार उस ओंकार शुद्ध स्वरूप को नमस्कार करता हूं। शुद्ध स्वभाव को अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित करके उसको ही उसमें ही अपने स्वरूप का आचरण करणीय है, यही निश्चय मंगल भाव नमस्कार है। अपने आत्मा में अपने स्वरूप का उदय प्राप्त हो उसे ही उवन नाम से कहते हैं । वही अनादि शुद्ध सिद्धात्मा निश्चय से है। उस उवन को उवन सिद्ध को नमस्कार हो, निजात्मा के परम स्वरूप को नमस्कार हो ।
१४८. श्री अध्यात्म वाणी, खातिका विशेष, सूत्र ३१, पृष्ठ ३९१
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