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जिनका स्वभाव अत्यंत गंभीर, उदार एवं उत्कृष्ट है। निराकुलित, अनुपम, बाधा रहित, स्वरूप से परिपूर्ण है तथा ज्ञान और आनंद मयी स्वभाव में आल्हादित हैं, सुख स्वभाव में मग्न हैं, अजर, अमर, अखंड अविनाशी हैं, निर्मल हैं तथा परम उत्कृष्ट चेतना स्वरूप शुद्ध ज्ञान की मूर्ति हैं । ज्ञायक हैं, वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं। द्रव्य गुण पर्याय सहित त्रिकाल संबंधी सर्वचराचर पदार्थों को एक समय में युगपत् जानते हैं तथा सहजानंद स्वरूप सर्व कल्याण के पुंज हैं वे परमात्मा तीनों लोक में पूज्य हैं । १४०
सिद्ध परमात्मा पूर्ण शुद्ध आत्मा होते हैं। तीनों प्रकार के कर्मों का अभाव हो जाने से उन्हें आत्मा की पूर्ण शक्तियाँ प्रकाशमान हो गई हैं। नो कर्म के अभाव होने से वे अशरीरी हैं। भाव कर्म के अभाव होने से वे मोह राग द्वेषादि से रहित अपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव में लीन हैं तथा द्रव्य कर्म का अभाव होने से अनंत गुण शुद्धपने प्रगट हो गये हैं। जैसा कि कहा गया है
णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा । लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवयेहिं संजुत्ता ॥
अर्थ- सिद्ध भगवान कर्मों से रहित हैं, अंतिम शरीर से कुछ न्यून (कम) आकार वाले हैं, लोक के अग्र भाग में स्थित हैं, नित्य हैं और उत्पाद-व्यय से युक्त हैं । १४१
आठ कर्मों का अभाव होने पर सिद्ध भगवान को आठ गुण प्रगट हो जाते हैं वे इस प्रकार हैं
१. मोहनीय कर्म का नाश होने से शुद्ध सम्यक्दर्शन, शुद्धोपयोग, स्वरूपाचरण, यथाख्यात चारित्र प्रगट हो जाता है।
२. ज्ञानावरणीय कर्म का नाश होने से अनंत ज्ञान, केवलज्ञान सूर्य प्रगट हो जाता है।
३. दर्शनावरणीय कर्म का नाश होने से अनंतदर्शन केवलदर्शन प्रगट हो जाता है ।
४. अंतराय कर्म का नाश होने से अनंतवीर्य (बल) प्रगट हो जाता है।
५. नाम कर्म का नाश होने से सूक्ष्मत्व गुण प्रगट हो जाता है, शरीर आदि संयोग नहीं रहते हैं।
६. गोत्र कर्म का नाश होने से अगुरुलघुत्व गुण प्रगट हो जाता है। समदर्शी, साम्यभाव, भेदरहित अभेद दशा होती है।
१४०. ज्ञानानंद श्रावकाचार, भोपाल प्रकाशन, सन २००० द्वि.सं. १४१. बृहद् द्रव्य संग्रह, श्री नेमिचंद्राचार्य, गाथा १४
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७. आयु कर्म का नाश होने से अवगाहनत्व गुण प्रगट हो जाता है। ८. वेदनीय कर्म का नाश होने से अव्याबाधत्व गुण प्रगट हो जाता है।
इस प्रकार सिद्ध परमात्मा सर्वगुणों से संयुक्त पूर्ण शुद्ध परमानंदमयी परमात्मा होते हैं।
सिद्ध परमात्मा में कर्म जनित कोई भी विकार नहीं होता इसलिए सर्वकर्मों से रहित आत्मा को ही सिद्ध परमात्मा कहते हैं। उनके सम्यक्दर्शन आदि अनंत गुण पूर्णरूपेण प्रगट हो जाते हैं, वे निरंतर अपने आत्मानंद में लीन रहते हैं । इनको ही ईश्वर, भगवान, परमेश्वर, परब्रह्म, निरंजन, ब्रह्म, परमात्मा, चिदानंद, प्रभु आदि नामों से भव्य जीव ध्याते हैं। सिद्ध भगवान की महिमा और विशेषता बताते हुए श्री नागसेन मुनि ने कहा है
न मुह्यति न संशेते न स्वार्थानध्यवस्यति । न रज्यते न च द्वेष्टि किंतु स्वस्थः प्रतिक्षणं ॥ त्रिकाल विषयं ज्ञेयमात्मानं च यथास्थितं । जानन् पश्यंश्च निःशेषमुदास्ते स तदा प्रभुः ॥ अनंतज्ञान दृग्वीर्य वैष्ण्यमयमव्ययं । सुखं चानु भवत्येष तत्रातींद्रियमच्युतः ॥ अर्थ- सिद्ध परमात्मा न मोह करते हैं, न संशय करते हैं, न स्व-पर पदार्थों में कोई विमोह रूप अध्यवसाय करते हैं, किंतु सदा ही अपने स्वभाव में तिष्ठते हैं। वे प्रभु तीन काल संबंधी सर्व पदार्थों को व अपने को जैसे का तैसा जानते देखते हुए पूर्णपने वीतरागी रहते हैं। वे वहां उस सुख का स्वाद लेते हैं, जो अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यमयी है, तृष्णा से रहित है, अविनाशी है, इंद्रियों से रहित और अनंत है। १४२
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अभेद दृष्टि से सिद्ध भगवान एक अखंड स्वभाव के धारी हैं तथा परमानंदमयी शुद्ध भाव में तल्लीन हैं, उनका स्वरूप अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य है वे शरीर रहित अमूर्तीक हैं।
सिद्ध में सत्य जिन स्वभाव उत्पन्न हो गया है, उन्होंने अपने ज्ञानानंदमयी स्वरूप को प्रगट कर लिया है, वहां ज्ञान स्वभाव का निर्विकल्प अनुभव है, स्वात्मरमण चारित्र सहित उन सिद्ध परमात्मा ने कर्मों को क्षय कर सिद्धि मुक्ति को प्राप्त कर लिया है। आठ गुणों सहित आठ कर्म रहित सिद्ध परमात्मा का आठवीं पृथ्वी के ऊपर सदाकाल निवास रहता है।
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१४२. तत्वानुशासन, श्री नागसेन, श्लोक २३७-२३९ ९९