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महान पुण्योदय, बड़े भाग्य से मिला है। यदि इसे पाकर भी अपने स्वभाव की श्री श्रावकाचार जी ग्रंथ में सद्गुरु कहते हैं - शरण नहीं ली, संसार चक्र को मेटने का पुरुषार्थ नहीं किया तो फिर यह सब देवं च न्यान रुपेन, परमिस्टी च संजुतं । प्रकार का अनुकूल संयोग शुभयोग बार-बार नहीं मिलेगा, इसलिये अब सब सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति स पंडिता ॥ ४२ ॥ विकल्पों को मिटाकर ज्ञान विज्ञान स्वभावी आत्मा का अनुभव प्रगट कर ले इसी कर्म अस्ट विनिर्मुक्त, मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते । से संसार की चारगति चौरासी लाख योनियों का भ्रमण मिट जायेगा।
सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति स पंडिता ॥ ४३॥ सद्गुरु तारण स्वामी जगा रहे हैं- श्री छद्मस्थ वाणी ग्रंथ में अपूर्व प्रेरणा वर्सन न्यान संजुक्त, चरन वीर्ज अनन्तयं । दी है
मय मूर्ति न्यान संसद्ध,देह देवलि तिस्टिते ॥४५॥ सोबत काहो रे॥४-९॥
देवो परमिस्टि मइयो,लोकालोकलोकितं जेन । उठि कलस लेहु
परमप्पा ज्ञानं मइयो,तं अप्पा देह ममि ।। ३२४ ॥ सत्ता एक, सुन्न विंद उत्पन्न सुन सुभाव ॥४-१०॥
देह देवलि देवंच, उवाइडो जिनवरेंदेहि। हे भव्य ! अब सोते क्या हो, जागो,उठो, यह कलश लो, अपना सत्ता एक परमिस्टि च संजुत्तो, पूजं च सुद्ध संमत्तं ॥ ३२५॥ सुन्न विंद सुन्न स्वभाव उत्पन्न हुआ है, अनुभव में प्रगट हुआ है।
ज्ञान स्वरूपी देव जो परमेष्ठी मयी है अर्थात अरिहंत परमात्मा हैं, वह किसी जिज्ञासु ने सद्गुरु से निवेदन किया कि गुरुदेव ! हमारी अतीत की। मैं इस देह में विराजमान आत्मा हूँ ऐसा जो जानता है वह पंडित अर्थात् ज्ञानी कथा क्या है और इस सत्य को आप ही हमें ग्रहण कराने की कृपा करें।
है। (४२) सद्गुरु ने कहा
ज्ञानावरणादि आठों कर्म से सर्वथा रहित,मुक्ति स्थान में विराजमान सिद्ध चौरासी उत्पन्न उत्पन्न उत्पन्न अनंत भव ।
परमात्मा हैं, वैसा ही सिद्ध परमात्मा मैं इस देह में विराजमान आत्मा हूँ ऐसा जो आपनी आपनी उत्पन्न निमिष निमिष लेह-लेह ।
जानता है वह पंडित अर्थात् ज्ञानी है। (४३) जैसे ले सकारले ॥४/१४,१५,१६॥
अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य से संपन्न परिपूर्ण हे भव्य ! चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न होते-होते, जन्म-मरण । परमात्म स्वरूप परम शुद्ध ज्ञान मय चैतन्य चिदानंद मूर्ति देह देवालय में करते-करते तुमने अनन्त भव बिता दिये हैं, अनन्त काल बीत गया, अब इस । विराजमान है। (४५) जग चक्र से मुक्त होने के लिए अपना-अपना अनुभव अपने-अपने में उत्पन्न परमेष्ठीमयी परमदेव जो लोकालोक को जानने वाले हैं, वह ज्ञानमयी करो, यह अनुभव, आत्म जागरण कोई किसी को ले दे नहीं सकता, इसलिए परमात्मा इस देह में विराजमान आत्मा ही है। (३२४) अपनी-अपनी अंतरात्मा को जगाओ।
देव, देह देवालय में विराजमान है, जो परमेष्ठी स्वरूप है, शुद्ध सम्यक्त्वी जितनी देर के लिए पलक झपकती है इसको निमिष कहते हैं, कम से कम इसी की पूजा आराधना, अनुभव करते हैं ऐसा जिनवरेन्द्र तीर्थंकर भगवंतों का निमिष भर के लिए ही इसको ग्रहण करो और "जैसे ले सकले "यह सद्गुरु उपदेश है। (३२५) की करुणा हमें जाग्रत होने की प्रेरणा दे रही है।
श्री ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ में सद्गुरु कहते हैं - ॐ नम: सिद्धम् मंत्र का अंतर जाप करें और आत्मोन्मुखी दृष्टि पूर्वक सिद्ध
ममात्मा परमं सुद्धं, मय मूर्ति ममलं धुवं । परमात्मा के समान अपने सिद्ध स्वभाव का अनुभव करें यही धर्म है जो संसार
विंद स्थानेन तिस्टंति, नमामिहं सिद्धं धुवं ॥४॥ सागर से पार उतारने वाला है। मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ यह आराधन ही
ममात्मा ममलं सुद्ध, ममात्मा सुद्धात्मनं । सारभूत है, अरिहंत सिद्ध परमात्मा के समान निज शुद्धात्मा है इसी अनुभूति और
देहस्थोपि अदेही च, ममात्मा परमात्म धुवं ॥४४॥ ॐ नम: सिद्धम् के भाव को श्री गुरु तारण स्वामी ने अपने अन्य ग्रंथों में भी स्पष्ट
त्रि अभ्यरं च एकत्वं, ॐ नमापि संजुतं । किया है।
नमं नमामि उत्पन्न, नमामिहं विंद संजुतं ॥४५॥