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कारणं कार्ज सिद्धं च,जं कारणं कार्ज उद्यमं । स कारणं कार्ज सिद्धं च, कारणं कार्ज सदा बुधैः ॥ कारण दर्सन न्यान, चरनं सब तपपूर्व। सुखात्मा चेतना नित्य, कार्ज परमात्मा धुर्व ॥
॥गाथा-८०-८१॥ कारण से कार्य की सिद्धि होती है, जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। कार्य की सिद्धि होने पर ही कारण माना जाता है, इसी प्रकार ज्ञानीजनों ने कारण कार्य का स्वरूप बताया है। यदि कारण सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और ध्रुव स्वभाव है तो शाश्वत चैतन्यमय शुद्धात्मा में रमणता रूप अविनाशी परमात्म पद की प्रगटता रूप कार्य होगा।
ॐ नमः सिद्धम् में यही सिद्धांत प्रसिद्ध हो रहा है। इस तीसरी गाथा में सद्गुरु कहते हैं कि सिद्ध स्वरूप की अंतर में अनुभूति है, कारण-स्वयं का सिद्ध स्वरूप है तो पर्याय में सिद्ध पद की प्रगटता रूप कार्य होगा।
ऐसे ज्ञायक स्वभाव का अनुभव अपने पुरुषार्थ द्वारा होता है, पुरुषार्थ के बिना मिल जाये ऐसी बात नहीं है। योगीजन, ज्ञानी-एक ज्ञायक भाव का आश्रय लेकर एक ज्ञायक जिसमें प्रकाशमान है ऐसे सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा को अनुभवते हैं।
चैतन्य रस अन्य रस से विलक्षण है, ऐसा यह अत्यंत मधुर रस, अमृत रस है। अनुभव में स्वाद की मुख्यता है। श्री गुरु तारण स्वामी ने इस ॐ नम: सिद्धम् मंत्र में अपने सिद्ध स्वरूप के अनुभव की बात कही है। स्वरूप का सत्य ज्ञान, सम्यज्ञान प्रगट हो उसे अपने चैतन्य के आनंद का स्वाद प्रत्यक्ष भासता है। ऐसा मधुर चैतन्य रस यह एक ही जिसका रस है, ऐसा निज शुद्धात्मा सिद्ध स्वरूप है ऐसा ज्ञानीजानता है। ज्ञान विशेष हो कि न हो, पर आत्मा का अनुभव होने पर आनंद का स्वाद आता है वह मुख्य है। पं. बनारसीदास जी ने कहा है -
वस्तु विचारत ध्यावत, मन पावे विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव ताको नाम । अनुभव चिंतामणि रतन, अनुभव है रस कूप।
अनुभव मारग मोख को, अनुभव मोख स्वरूप ॥ आत्मा का ही अनुभव करना अर्थात् आनंद के वेदन में ही रहना, ठहरना । चिदानंद भगवान शुद्धात्मा ज्ञान आनंद का महान भण्डार है, उसे । सम्यक्दर्शन ज्ञान द्वारा खोलकर अनुभूति ही करना।
आत्मा के अनुभव की विधि - अनेक विकल्पों द्वारा आकुलता उत्पन्न
करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान तत्त्व को आत्म सम्मुख करना, उस समय ही विकल्प रहित होता हुआ आत्मा सम्यक्पने दिखाई देगा अर्थात् अनुभव में आयेगा । विकल्प बहिर्मुख भाव है, जो विकल्प में ही भटका रहता है वह तो बहिरात्मा है, इसलिये जो श्रुतज्ञान की बुद्धियों को मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान को अंतर में आत्माभिमुख करता है उसे आत्मा का अनुभव, आत्म दर्शन होता है। यही आत्मा के अनुभव की विधि है।
उवं नम: में इसी एकत्व अनुभूति की बात है, जिसके होने पर चारित्र अर्थात् स्वरूप में चरना, रमना, ठहरना, स्थिर होना होता है, जिससे "सिद्ध भवति सास्वतं"शाश्वत सिद्ध पद की प्राप्ति होती है।
आत्मा निर्विकल्प आनंद स्वरूप चैतन्यमय महाप्रभु है। यह चिदानंद भगवान चौरासी के अवतार करने योग्य नहीं है, यह तो अपने में रहने, परमात्म पद की प्राप्ति के योग्य है। आत्मा में भव और भव के भाव का अभाव है। भव और भव का भाव आत्मा के स्वभाव में नहीं है। तू भव के भाव से रहित है इसलिये सद्गुरु तारण तरण कहते हैं,हे भव्य ! तू परमात्म स्वरूप है,उठ जाग,अब समस्त विकल्पों को छोड़करतू अपने स्वभाव का अनुभव कर।
___ मैं मुक्त स्वरूप हूँ, परमात्म स्वरूप हूँ , परमेश्वर हूँ इत्यादि विकल्प रूप वृत्ति का जो उत्थान होता है, वह भी अनुभूति में हानिकारक है, तो फिर अन्य व्यवहार रत्नत्रय आदि के विकल्प की तो बात ही क्या है ? यह तो वीतरागता का मार्ग है, जो शक्ति रूप से प्राप्त है उसी की पर्याय में प्राप्ति होती है, यही ॐ नमः सिद्धम् का अभिप्राय है।
यह अनुभव स्वरूप शुद्धात्मा चिदानंद घन वस्तु प्रभु, इसका विचार चिंतन-मनन करते हुए इसी की धुन में मग्न हो जाओ और अंतर में ठहरो इससे संकल्प-विकल्प ठहर जायें, मिट जायें तभी आनंद रस के स्वाद से सुख उत्पन्न होता है इसी का नाम अनुभव है और इससे ही सुख है । हे भव्य ! तुझे सत्य की शरण लेना कठिन क्यों पड़ता है ?
ॐ नमः सिद्धम् में निहित अपने सिद्ध स्वभाव की अनुभूति करने में किस बात की कठिनाई है? यह अनुभव तो स्वयं का अधिकार है, इसे तो अंतर में ही स्वीकार करना है, इसके लिये बाहर कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। स्वभाव के पक्ष में आकर, अपने सिद्ध स्वभाव को समर्पित होकर इस सत्य की प्रतीति तो कर।शुभ क्रिया और बाह्य प्रपंचों से भला होगा, कल्याण हो जायेगा, ऐसा मानकर संसार में परिभ्रमण बहुत किया है, अनंत काल गंवाया है और अब यह मनुष्य भव