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निश्चय से मेरा आत्मा परम शुद्ध, ममल ध्रुव ज्ञानमय मूर्ति है, विंद स्थान में विराजमान सिद्ध ध्रुव स्वभाव को मैं नमस्कार करता हूँ। (४)
मेरा आत्मा ममल,शुद्ध है, मेरा आत्मा शुद्धात्मा है। देह में स्थित होते हुए भी निश्चय से मेरा आत्मा अदेही ध्रुव परमात्मा है। (४४)
ॐ नम: का अभिप्राय है इन तीन अक्षरों के एकत्व से संयुक्त हो जाना अर्थात् सिद्ध स्वरूप की अनुभूति से युक्त होना, इससे जिस सिद्ध स्वभाव को नमस्कार किया जा रहा है वह सिद्ध पद उत्पन्न हो जाता है, विंद भाव से संयुक्त होकर मैं सिद्ध स्वभाव को नमस्कार करता हूँ। (४५)
इस प्रकार ॐ नम: सिद्धम् मंत्र की सिद्धि इसी ग्रंथ में गाथा ७०५ से ७११ तक की गई है, जिसका उल्लेख किया जा चुका है।
श्री ममलपाहुड जी ग्रंथ के ३९ वें फूलना न्यान अन्मोय पच्चीसी गाथा में श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज कहते हैं
स्वामी देहाले सुइ सिद्धाले भेउ न रहै।
जं जाके अन्मोय सन्यानी मुक्ति लहै॥ हे स्वामी ! जो आनंद घन परमात्मा देहालय में है, वही सिद्धालय में है इसमें अब कोई भेद नहीं है, जो ज्ञानी इसकी अनुमोदना करते हैं, इस सत्य वस्तु स्वरूप को अनुभूतिपूर्वक स्वीकार करते हैं वे सम्यक्ज्ञानी मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
स्वभाव की साधना आराधना करना ही मुख्य प्रयोजन है। अनादिकाल से इस जीव ने अपनी पहिचान के अलावा और सब कुछ किया, समवशरण में भी गया, परंतु परमात्मा के चैतन्य स्वरूप को नहीं जान सका । साक्षात् चैतन्य प्रभु देहालय वासी भगवान आत्मा का विस्मरण कर मोह में भूला रहा, पर में अपनी कल्पना की, इस कारण प्रभु का दर्शन संभव नहीं हो सका। इसका मुख्य कारण परमात्मा को सही दृष्टि से नहीं देखना ही रहा। यदि भगवान के सत्य स्वरूप का एक बार भी सही फैसला किया होता तो भगवान की पहिचान के साथ-साथ अपनी पहिचान भी अवश्य ही हो जाती । जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रवचनसार में लिखते हैं
जो जाणदि अरहंत, दव्वत्त गुणत्त पञ्जयत्तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं, तस्स मोहो खलु जादि लयं ॥ ८०॥ जो जीव अरिहंत परमात्मा को द्रव्य से, गुण से और पर्याय से जानता है वह अपने आत्मा को जानता है, निश्चय ही उसका मोह क्षय को प्राप्त होता है।
जिस आत्मा के स्मरण आराधन ध्यान से अरिहंत भगवान महान बने, भगवान बने, हम उसी आत्म तत्त्व को भूल रहे हैं और अरिहंत परमात्मा भी यही कहते हैं कि अपने आत्मा को जानो पहिचानो यही मेरी देशना है और उस अनुरूप चलोगे तभी मेरी वंदना भक्ति आराधना भी सही होगी। अब हम भगवान को तो मान रहे हैं परंतु भगवान की बात कहां मान रहे हैं?
वास्तविकता तो यही है कि आत्मा की श्रद्धा अनुभूति ही जीवन की सार्थकता का मूल आधार है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव अष्टपाहुड में कहते हैं -
णमिएहिं जं णमिजाइमाइजइमाइएहि अणवस्य ।
धुव्वंतेहि थुणिजाइ, देहत्थं किंपित मुणह॥ जो नमस्कार योग्य महापुरुषों से भी नमस्कार करने योग्य है, स्तुति करने योग्य सत्पुरुषों से स्तुति किया गया है और ध्यान करने योग्य आचार्य परमेष्ठी आदि से भी ध्यान करने योग्य है ऐसा यह सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा इस देह में बसता है। उसको ही परमात्मा जानो, यही इष्ट और उपादेय है।
शुद्ध निश्चय से आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। जैसे परमात्मा हैं वैसे ही स्वभाव से निज आत्मा है। इसी की साधना आराधना अनुभूति ॐ नम: सिद्धम् मंत्र का मूल आधार है, इसके संबंध में श्री गुरु तारण स्वामी ने तो अपने ग्रंथों में सब स्पष्ट कहा ही है, अन्य वीतरागी संत जैनाचार्यों ने भी इस मंत्र के अभिप्राय के अनुरूप अनुभव दिए हैं। आचार्य योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश में कहते हैं -
जेहउ णिम्मलु णाणमउ,सिद्धिहि णिवसइ देउ।
तेहउ णिवसइबभु पल, देहह में करि भेउ॥ १-२६॥ जैसा केवलज्ञानादि प्रगट स्वरूप कार्य समयसार उपाधि रहित भाव कर्म, द्रव्य कर्म,नो कर्म रूप मल से रहित, केवलज्ञानादि अनंत गुण रूप सिद्ध परमेष्ठी देवाधिदेव परम आराध्य मुक्ति में रहता है, वैसा ही सब लक्षणों सहित परब्रह्म,शुद्ध बुद्ध स्वभाव परमात्मा उत्कृष्ट शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से शक्ति रूप परमात्मा शरीर में तिष्ठता है इसलिए सिद्ध भगवान में और अपने में भेद मत कर । भेद दृष्टि में निर्विकल्प दशा नहीं होती। अनंत गुणों को धारण करने वाला धर्मी जो ऐसा अभेद आत्मा, ज्ञान दर्शन चारित्र प्रभुता आदि ऐसे अनंत गुणों का भेद लक्ष्य में लेने जाएगा तो राग उत्पन्न होगा तब तत्त्व का भेद करना तो दूर रहा परंतु गुण और गुणी का भेद करने जाएगा तो भी निर्विकल्प दशा नहीं होगी। वस्तु और उसकी शक्तियां ऐसे दो भेद , वह दृष्टि का विषय नहीं। दृष्टि का विषय तो अभेद अखंड
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