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सिद्ध परमात्मा का स्वरूप बतलाते हुए श्री गुरु तारण तरण देव कहते सिद्ध परमात्मा के समान शुद्ध होने से संसार के परिभ्रमण से रहित यह निज
आत्मा ही निर्मल शुद्ध परमात्मा है। सिद्ध सिद्ध सरुव, सिद्ध सिदिसौष्य संपत्ती
उनमः एकत्व, पद अर्थ नमस्कार उत्पत्र। नंदो परमानंदो, सिद्धो सुद्धो मुनेअव्या ॥
उर्वकारं च विद, विवस्थं नमामि तं सुद्धं ॥ ७०८ ॥ ॥ज्ञान समुच्चय सार-७०३ ॥
ॐकार मयी सिद्ध परमात्मा के समान अपने सिद्ध स्वभाव से एकत्व सिद्ध परमात्मा सिद्ध स्वरूप को प्राप्त हो गये हैं, वे सिद्ध प्रभु सिद्धि के (अनुभूति) होना ही सिद्ध को नमस्कार है। अनंत सुख की संपत्ति से युक्त आनंद परमानन्द मय निमग्न हैं, कर्म रहित शुद्ध हैं इस अनुभूति पूर्ण नमस्कार से जिस प्रयोजनीय पद को नमस्कार किया उनको ही परमात्मा जानो।
जा रहा है, वह उत्पन्न हो जाता है अर्थात् सिद्ध पद प्रगट हो जाता है। ॐकार जब आठों कर्म क्षय हो जाते हैं,तब कर्म जनित सारी रचना भी दूर हो । मयी परमात्मा निर्विकल्प स्वभाव में लीन हैं। अपने विंद (निर्विकल्प) स्वरूप में जाती है, इसलिए सिद्ध महाराज रागादि भाव कर्म व शरीरादि नो कर्म से रहित हैं, स्थित होकर मैं उस शुद्ध स्वभाव को नमस्कार करता हूँ। सर्व बाधाओं से रहित हैं,स्वाभाविक परमानन्द में नित्य निमग्न हैं, जो साध्य था यहां श्री जिन तारण स्वामी ने अभेदपने अपने सिद्ध स्वभाव की अनुभूति उसको सिद्ध कर चुके हैं, इसी से सिद्ध कहलाते हैं, यही परमात्मा का वास्तविक की है, यही सिद्ध परमात्मा की वास्तविक वंदना, नमस्कार है । सिद्ध पद जो स्वरूप है।
अपने में निहित है, इसी अनुभूतिमय वंदन से प्रगट होता है। भेद रूप नमस्कार श्री नेमिचंद्राचार्य महाराज के द्रव्य संग्रह के वचनानुसार -
मात्र कषाय भी मंदता और शुभ भाव रूप होने से पुण्य बंध का कारण है, धर्म "सव्वे सुद्धा हु सुद्ध णया"
नहीं, परंतु अभेदज्ञान मय नमस्कार वह आत्म धर्म है जो समस्त कर्मों की निर्जरा शुद्ध नय से (निश्चय नय से) जगत के सभी जीव शुद्ध हैं। स्वभाव दृष्टि से कर मुक्ति को प्राप्त कराने वाला है इसलिए सिद्ध परमात्मा के समान निज शुद्धात्मा सिद्ध स्वरूपी आत्मा स्वयं ही है। सिद्ध परमात्मा के समान निज शुद्धात्मा है।। सिद्ध स्वरूप का अनुभवन ही ॐ नम: का भाव है और यही प्रयोजनीय है, इसी
श्री गुरु तारण स्वामी ने सिद्ध परमात्मा का स्वरूप आदर्श के रूप में। के आश्रय से सिद्ध पद प्रगट होता है, जैसा कि गुरुदेव ने ॐ नम: के एकत्व के सामने रखकर अपने सिद्ध स्वरूप का आराधन किया है
फल के रूप में प्राप्त होने वाली सिद्धि के बारे में स्वयं लिखा हैप्रस्तुत हैं ज्ञान समुच्चय सार जी ग्रंथ की गाथायें
सिद्ध सिद्धि सवर्थ, सिद्ध सबंप निम्मलं विमल। उर्वकारं च ऊर्च,कर्ष सहावेन परमिस्टि संजुत्तो।
वर्सन मोहंध विमुक्क, सिद्ध सुद्ध समायरहि ॥ ७०९॥ अप्पा परमप्पानं, विंद स्थिर जान परमप्पा ॥ ७०५ ।।
सत् (अस्तित्व) ही जहां प्रयोजन रहा, ऐसी सिद्धि की प्राप्ति ही सिद्ध पद ॐकारमयी सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा श्रेष्ठ है,यह आत्मा परमात्मा ऊर्ध्वगमन है। यह सिद्ध पद शुद्ध और निर्मल विमल है, परम आनंद स्वरूप है, दर्शन स्वभाव से परम इष्ट पद में संयुक्त होकर विंद (निर्विकल्प) स्वभाव में स्थिर हो। मोहनीय रूप मिथ्यात्व अज्ञान के तिमिर से सर्वथा रहित है ऐसे शुद्ध सिद्ध पद में जाता है उसको ही परमात्मा जानो।
आचरण करो। न्यानं सुद्ध सहावं,न्यान मयं परमप्प सुंसुद्धं ।
अनुभव की दृष्टि से ॐ नम: सिद्धम् मंत्र अत्यंत सूक्ष्म भाव को धारण न्यानं न्यानं सरुवं, अप्पा परमप्प सुद्धमप्पानं ॥ ७०६ ॥ करता है और महा महिमामय मंत्र है।
ज्ञान स्वभाव शुद्ध है, परमात्मा परम शुद्ध ज्ञानमय हैं, ज्ञान ही ज्ञान है इसमें सिद्धम् पद सिद्ध स्वभाव का सूचक है, ॐ पद सिद्ध परमात्मा ॐकार स्वरूप जिसका, ऐसा यह आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा है।
मयीशुद्धात्मा का बोध कराने वाला है तथा नम: पद नमस्कार, स्वीकार,अनुभवन, ममात्मा ममलं सुद्धं, सुद्ध सहावेन तिअर्थ संजुत्तं ।
स्वभाव की एकत्व रूप अनुभूति को प्रसिद्ध करने वाला है। इस प्रकार सिद्ध संसार सरनि विगतं, अप्पा परमप्प निम्मलं सुद्धं ॥ ७०७ ॥ परमात्मा के समान निज शुद्धात्मा का अनुभवन करना ही ॐ नमः सिद्धम् का मेरा आत्मा ममल और शुद्ध है, शुद्ध स्वभाव से परिपूर्ण रत्नत्रयमयी है। तात्पर्य है।