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गया ? जो शिव कल्याण रूप परमेश्वर सर्वांग में विराज रहा है उसको तू कैसे भूल गया ? इसीलिए संतों ने जागरण देशना दी है
जैसे तिल में तेल है,ज्यों चकमक में आग।
तेरा प्रभु तुझमें बसे, जाग जाग रे जाग ॥ देह रूपी देवालय में जो शक्तिमान शिव स्वरूप शुद्धात्मा परमात्मा वास कर रहा है। हे योगी ! वह शक्तिमान परमात्मा कौन है ? इस भेद को तू शीघ्र ढूंढ । तेरा आत्मा ज्ञानमय है, जब तक उसके भाव को नहीं देखा, तभी तक चित्त बेचारा संसार ताप से दग्ध होकर संकल्प-विकल्प सहित अज्ञान रूप प्रवर्तता है, इसलिए ॐ नम: सिद्धम् के आंतरिक रहस्य को जानने के लिए प्रथम यह निर्णय बुद्धि पूर्वक करना कि मैं आत्मा सिद्ध परमात्मा के समान शुद्ध बुद्ध ज्ञान घन सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ।
में ही देखेंगे।
ज्ञानी यह जानता है कि मैं एक चैतन्यमात्र ज्योतिरूप पदार्थ हूँ| जिस समय मेरे भीतर इस आत्मज्योति का प्रकाश होता है अर्थात् मैं जब आत्मा के शुद्ध स्वभाव का अनुभव करता हूँ तब नाना प्रकार के विकल्प जालों का समूह जो इन्द्रजाल के समान मन में था वह सब दूर हो जाता है । मैं निर्विकल्प स्थिर स्वरूप में रमणकारी हो जाता हूँ।
ऐसे अन्तरंग के आल्हादपूर्वक आत्मा के द्वारा आत्मा का अनुभव करना। मोक्षमार्ग है। जो कोई उस आत्मानुभव का अभ्यास करना प्रारंभ करता है उसको महान फल की प्राप्ति होती है। जब तक केवलज्ञान न हो तब तक यह आत्मध्यानी ध्यान के समय चार फल पाता है। आत्मीक सुख का वेदन होता है। यह अतीन्द्रिय सुख उसी जाति का है जो सुख अरहंत सिद्ध परमात्मा को है। दूसरा फल यह है कि अन्तराय कर्म के क्षयोपशम बढ़ने से आत्मवीर्य बढ़ता है, जिससे हर एक कर्म को करने के लिये अन्तरंग में उत्साह व पुरुषार्थ बढ़ जाता है। तीसरा फल यह है कि पाप कर्मों का अनुभाग कम करता है। पुण्य कर्मों का अनुभाग बढ़ाता है। चौथा फल यह है कि आयु कर्म के सिवाय सर्व कर्मों की स्थिति कम करता है।
आत्मार्थी साधक अपने सत्स्वरूप को जानता पहिचानता है, अपने देव स्वरूप निज शुद्धात्मा का उसे बोध है इसलिए वह मुक्ति को, अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। जिस जीव को वस्तु स्वरूपकी समझ नहीं होती, वह अज्ञान के कारण नाना प्रकार की विपरीत मान्यताओं में फंसकर संसार में भटकता रहता है।
देहरूपी देवालय में जो शक्ति सहित देव वास करता है, हे योगी ! वह शक्तिमान शिव कौन है ? इस भेद को तू शीघ्र ढूँढ।जोन जीर्ण होता है, न मरता है,न उपजता है; जो सबसे पर,कोई अनंत है,त्रिभुवन का स्वामी है और ज्ञानमय है, वह शिवदेव है - ऐसा तुम निर्धान्त जानो।
मनुष्य भव में प्राप्त इस अमूल्य अवसर में सच्चे देव गुरु धर्म का यथार्थ स्वरूप समझकर वस्तु स्वरूपका श्रद्धान करना और स्व-पर की पहिचान कर अपने आत्म कल्याण का मार्ग बनाने में ही मनुष्य भव की सार्थकता है।
इस लक्ष्य को भूलकर जो जीव मात्र बाहर ही बाहर भटकते हैं, निज परमात्मा की जिनको खबर नहीं है, श्री रामसिंह मुनिराज उनसे पूछते हैं
आराहिज्जइ देउं परमेसरु कहिं गयउ। वीसारिजइ काई तासु जो सिउ सव्वंगउ ॥
॥पाहुड़ दोहा-५०॥ रे जीव ! तू देव का आराधन करता है, परन्तु तेरा परमेश्वर कहां चला।
ॐ नम: सिद्धम् की सिद्धि
(आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में) श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज महान आध्यात्मिक संत थे, उनकी आत्म ज्ञान मय आध्यात्मिक साधना आत्मा से परमात्मा होने का सत्पुरुषार्थ और तदनुरूप आत्म साधना की अनुभूतियाँ उनके द्वारा विरचित चौदह ग्रंथों में अंतर्निहित हैं। विचार मत, आचार मत, सार मत, ममल मत और केवल मत, इन पांच मतों में पूज्य गुरुदेव श्री जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने चौदह ग्रंथों की रचना की । स्वयं आत्म साधना के मंगलमय पथ पर अग्रसर होते हुए सभी भव्यात्माओं को जिनेन्द्र कथित अध्यात्म सत्य धर्म का स्वरूप बताकर महान-महान उपकार किया है।
सार मत के अंतर्गत तीन ग्रंथ - श्री ज्ञान समुच्चय सार, उपदेश शुद्ध सार, त्रिभंगी सार । इनमें श्री ज्ञान समुच्चय सार जी ग्रंथ सम्पूर्ण द्वादशांग वाणी के सार स्वरूप सिद्धांत का प्रायोगिक स्वरूप बताने वाला ग्रंथ है। इस ग्रंथ में द्वादशांग का स्वरूप, चार आराधना की आराधना करने का विधान तथा जिनवाणी के अनेकों रहस्य स्पष्ट किए हैं।
गाथा ६५८ से ७०४ तक चौदह गुणस्थानों का विशद् विवेचन करके श्री गुरुदेव ने गुणस्थानातीत सिद्ध परमात्मा का स्वरूप बताते हुए इस ग्रंथ में ॐ नम: सिद्धम् मंत्र की प्रसिद्धि की है।
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