________________
सिद्ध परमात्मा स्वभाव से शुद्ध हैं, केवलदर्शन और केवलज्ञान जैसी अनंत शक्ति से संपन्न हैं, मात्र अपने स्वभाव मय ही हैं वे सिद्ध परमात्मा शुद्ध हैं ऐसा जानो। सिद्ध भगवान अपने आत्मा की बहुत बड़ी संपत्ति से सहित हैं, उनको कोई आकुलता नहीं है, किसी प्रकार का कोई राग-द्वेष नहीं है,संकल्प-विकल्प भी नहीं है वे विशुद्ध ज्ञान स्वरूप हैं। दु:ख तो उनको होता है जो पर की अपेक्षा रखते हैं, पर में मोह करते हैं। मोह करना बहुत बड़ा अपराध है क्योंकि अपना है तो कुछ नहीं, अपना तो केवल आत्मा है, स्वयं है, स्वयं से बाहर सब पर पदार्थ । पर ही हैं, अत्यंत भिन्न हैं, उनसे अपना रंच मात्र भी संबंध नहीं है। फिर भी उनकी ममता हम अपने चित्त में बसाये हैं,यह मेरा है, ऐसा मानना ही मोह है, यही अपराध है।
जहां मोह है, वहां अज्ञान, राग-द्वेष, क्लेश, दु:ख, भय आदि होते हैं। सिद्ध भगवान मोह रहित हैं इसलिए समस्त विकारों से रहित निर्विकार परम आनंदमय हैं। वे कर्म मुक्त आत्मा होकर सिद्ध हो गए हैं। वे प्रभु चारित्र से सिद्ध । हुए, दर्शन से सिद्ध हुए, ज्ञान से सिद्ध हुए, संयम से सिद्ध हुए, तप से सिद्ध हुए। अब वे पूर्ण सिद्ध हैं। सिद्ध से आगे कुछ करने की आवश्यकता नहीं रही यह परिपूर्ण आत्म पद है।
सिद्ध परमात्मा अपूर्व अतीन्द्रिय आनंद का निरंतर रसपान करते हैं. कर्म रहित, संयोग रहित, आत्म गुणों में परिपूर्ण शुद्ध सिद्धात्मा हैं।
सिद्ध भगवान उत्कृष्ट हैं, आदर्श हैं। जैसी सिद्धि उन्होंने प्राप्त की है, जो दशा उन्होंने प्राप्त की है वही अवस्था हमारी भी हो सकती है, प्रत्येक आत्मा स्वभाव से सिद्ध परमात्मा की तरह शुद्ध है, उन सिद्ध भगवान की तरह मुझे भी सिद्ध पद की प्राप्ति हो, इसी सिद्धि की प्रसिद्धि के लिए सिद्ध प्रभु का आराधन किया जाता है कि जैसे सिद्ध भगवान की संकट हीन, विकारहीन पवित्र आनंदमय दशा है, ऐसी आनंदमय दशा मेरी भी हो इसके लिए मैं उस पवित्र स्वरूप का ध्यान करूं, जिसके ध्यान करने से अपने सिद्ध स्वरूप शुद्धात्मा में तल्लीनता, स्वरूप मग्नता हो जाती है,यही स्वात्मोपलब्धि है। इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए सिद्ध परमात्मा का आराधन और सिद्ध स्वरूप का साधन किया जाता है। सिद्ध परमात्मा और निज शुद्धात्मा
सिद्ध परमात्मा और निज शुद्धात्मा में स्वभाव अपेक्षा निश्चय नय से रंचमात्र भी कोई भेद नहीं है। यही शुद्ध स्वभाव, दृष्टि का विषय है, यही दृष्टि सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र का मूल है। जब तक शुद्धात्म स्वभाव की दृष्टि नहीं होगी तभी तक संसार और बंधन है। अनादिकाल से अपने सत्स्वरूप शुद्धात्मा चैतन्य भगवान को नहीं जानने के कारण यह चार गति चौरासी लाख योनियों का चक्कर चलता रहा है। अब मनुष्य भव में यह अज्ञान मिथ्यात्व की भूल समूल रूप से उन्मूलन करने का सुअवसर है, इसके लिए एक ही उपाय है कि पर्याय आश्रित होने वाली मान्यताओं को मिटाना और मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूं इसकी दृष्टि बहुमान जगाना कि जैसे सिद्ध परमात्मा सर्वकर्मों से रहित सिद्ध शुद्ध मुक्त अविनाशी अतीन्द्रिय सुख के धनी हैं, उनके समान ही मैं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा परमात्मा हूं, परम आनंद स्वरूप हूं। जैसे भगवान मात्र ज्ञान स्वरूप हैं इसी प्रकार मैं भी मात्र ज्ञान मय तत्त्व परमात्मा हूं।
अहो! ऐसे अपने आनंदमयी ध्रुवधाम प्रभु निज परमात्मा को जाने पहिचाने तो बाहर में परमात्मा की खोज का परिश्रम समाप्त हो जाए; परंतु अज्ञानी जीव अपने स्वभाव से विमुख हुए परमात्मा की खोज बाहर करते हैं।
निश्चय से या वास्तव में यदि कोई परमात्मा का दर्शन या साक्षात्कार करना चाहे तो उसको अपने शरीर के भीतर ही अपने ही आत्मा को शुद्ध ज्ञानदृष्टि से शुद्ध स्वभावी सर्व भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म रहित देखना होगा । कोई भी इस जगत में परमात्मा को अपने चर्म चक्षु से कहीं भी नहीं देख सकता है। अब तक जिसने परमात्मा को देखा है अपने ही भीतर देखा है।
वर्तमान में परमात्मा का दर्शन करने वाले भी अपनी देह के भीतर ही देखते हैं, भविष्य में भी जो कोई परमात्मा को देखेंगे वह अपने शरीररूपी मंदिर
ॐ नम: सिद्धम् की पूर्व भूमिका सिद्धि का अर्थ
पूर्ण स्वभाव की वर्तमान पर्याय में प्रगटता होना, अपने परिपूर्ण स्वभाव में लीन हो जाना ही सिद्धि है, आत्मा के या आत्मा के गुणों के विनाश का नाम सिद्धि नहीं है। अपने आत्म स्वरूप की समझ जागने पर सिद्धि क्या है, मोक्ष क्या है इसका स्वयमेव बोध होता है। ___मोक्षनाम है-कैवल्य का। जैसा यह आत्मा केवल अपने आप अपने स्वभाव से है उतना ही मात्र रहे, इसके साथ कर्मोपाधि शरीरादि संयोग कुछ भी न रहे. यह जैसा है मात्र वैसा ही रहे, इसी को मोक्ष कहते हैं, इसी का नाम सिद्धि है।
सिद्धि शब्द "षिध्' धातु से बना है, जिससे सिद्धि का अर्थ है उत्कृष्ट उपलब्धि, विकारों का विध्वंस, इस प्रकार निर्विकार परिसमृद्ध जिनकी परिणति हुई है, उन्हें सिद्ध भगवान कहते हैं। सर्व आत्माओं में अति विशुद्ध सारभूत सर्व प्रकार के संकटों से मुक्त और सदा के लिए निर्विकल्प स्वच्छ बने रहने वाले यह