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यही अभेद अनुभूति सत्य धर्म है, कहा भी हैधम्मं च चेयनत्वं, चेतन लष्यनेहि संजुत्तं । अचेत असत्य विमुक्क, धम्म संसार मुक्ति सिवपंथ ॥ ७१०॥
आत्मा का चेतनत्व गुण ही धर्म है। शरीर आदि अचेतन संयोगी पर पदार्थ और रागादि क्षणभंगुर असत् विभाव परिणामों से दूर होकर अपने चेतन लक्षण । स्वभाव से संयुक्त होना चैतन्य स्वरूप का अनुभव करना ही धर्म है। यही धर्म संसार से मुक्ति दिलाने वाला मोक्ष का मार्ग है।
"चेतना लक्षणो धर्मों" आत्मा का चैतन्य लक्षण रूप स्वयं का अनुभव ही धर्म है, जो संसार से पार लगाने वाला है। वस्तुत: वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। आत्मा का जो स्वभाव है वह आत्मा का धर्म है,आत्मा स्वभाव से चेतना लक्षणमय है, यही आत्मा का धर्म है । जहाँ आत्मा कर्म चेतना तथा कर्मफल चेतना से रहित होकर ज्ञान चेतना का अनुभव करता है, वहीं वह अपने धर्म में है। ऐसा ज्ञानानुभव रूप या आत्मानुभव रूप धर्म ही वीतराग भाव को लिए हुए है; अतएव यही कर्मों की निर्जरा का कारण, नवीन कर्मों का संवर करने वाला है। इसी के बारम्बार अभ्यास से यह आत्मा सिद्ध परमात्मा की तरह कर्मों से छूटकर सिद्ध पद पा लेता है। इसीलिए "ॐ नम: सिद्धम्" का अनुभव धर्म है, क्योंकि यहां सिद्ध स्वभाव मात्र है। सिद्ध परमात्मा और अपने सिद्ध स्वभाव का भी भेद नहीं है। इस प्रकार यह पंच अक्षर रूप ॐ नम: सिद्धम् की प्रसिद्धि प्रगट होती है -
पंच अव्यर उत्पन्न, पंचम न्यानेन समय संजतं । रागादि मोह मुक्त, संसारे तरंति सब सभावं ॥११॥
अर्थात् पंचम ज्ञान (केवलज्ञान) मय ध्रुव स्वसमय शुद्धात्मा सिद्ध स्वरूप से संयुक्त होने से (निर्विकल्प अनुभूतिपूर्वक) यह पंच अक्षर प्रगट हुए हैं, उत्पन्न हुए हैं। इसके आश्रय से जीव मोह रागादि विकारी भावों से मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वभाव में ठहरकर संसार से तर जाते हैं।
अनुभूति की पर्याय में त्रिकाली आत्मा जानने में आता है। अनित्य अनुभूति की पर्याय नित्य को जानती है। जानने वाली पर्याय है परन्तु जानती द्रव्य स्वभाव को है। अनुभूति की पर्याय को द्रव्य का आश्रय है,पर्याय को पर्याय का आश्रय नहीं । कार्य पर्याय में होता है पर उस कार्य में कारण त्रिकाली ध्रुव है। कार्य में कारण का ज्ञान होता है। यही मंत्र है जो संसार सागर से पार उतारने वाला है।
ॐनमः सिद्धम् मंत्र अपने सिद्ध स्वरूप की विंद रूप अनुभूति है। श्री गुरु तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने श्री ममल पाहुड़ जी ग्रंथ की पहली फूलना
देव दिप्ति गाथा में सिद्ध स्वभाव को नमस्कार किया है
तत्वं च नंद आनंद मउ,चेयननंद सहाउ।
परम तत्व पदविंद पड,नमियो सिब सुभाउ॥ तत्त्व, सिद्ध स्वरूपी शद्धात्मा नन्द आनंदमयी चिदानंद स्वभावी है, यही परम तत्व विंद (निर्विकल्प) पद प्राप्त हुआ है, अनुभति में प्रगट हुआ है, ऐसे विंद पद स्वरूप सिद्ध स्वभाव को नमस्कार है।
चैतन्य स्वरूप चिदानन्द भगवान निज शद्धात्मा निज अनुभवन से, स्व का अनुसरण करके होने वाली परिणति से शुद्ध चैतन्य की अनुभूति से ही जाना जाता है। यह राग से प्रकाशित होने वाला तत्त्व नहीं है,उसे राग की या निमित्त की अपेक्षा है ही नहीं।
यह भेद दृष्टि से भी पकड़ में नहीं आता, यहां तो पूर्ण अभेद स्वभाव के लक्ष्य और दृष्टि की बात है तभी ॐ नम: सिद्धम् में निहित भाव ॐकार मयी सिद्ध स्वभाव की अनुभूति रूप सिद्ध स्वभाव को नमस्कार होता है।
यहां अनुभवन रूप क्रिया यह व्यवहार है, उसमें निश्चय ध्रुव तत्त्व सिद्धत्व जानने में आता है। अनुभूति की अनित्य पर्याय नित्य को जानती है। नित्य,नित्य को क्या जाने, वह तो नित्य स्वरूप है ही। पर्याय को द्रव्य ध्येय है, वह पर्याय में जाना जाता है।
आत्मा अतीन्द्रिय आनंद का नाथ सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा त्रिकाली भगवान चैतन्य देव परमात्मा है, उसका विचार कर ध्यान करने से मन अनेक विकल्पों के कोलाहल से विश्राम पा जाता है, शांत हो जाता है और तब अतीन्द्रिय आनंद के रस का स्वाद आता है, सिद्धत्व की अनुभूति का निर्झर वह निकलता है यही ॐ नम: सिद्धम् है।
श्री गुरु तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने विचार मत में श्री मालारोहण, पंडित पूजा, कमलबत्तीसी जी ग्रंथों का सृजन किया। यह तीनों ग्रंथ क्रमश: सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्र का प्रतिपादन करने वाले हैं। श्री पंडितपूजा ग्रंथ की प्रथम तीन गाथाओं में सद्गुरु ने ॐ नम: सिद्धम् मंत्र की जो द्रव्य, पर्याय से, निश्चय-व्यवहार से सिद्धि की है यह आत्म चिंतन और अनुभवन में साधन बनेगी, ऐसी अपूर्व बात है।
प्रथम दो गाथाओं में ॐ नम: सिद्धम् का आधार और अभिप्राय स्पष्ट किया है
उर्वकारस्य ऊर्धस्य, ऊर्ध सद्भाव सास्वतं। विन्द स्थानेन तिस्टन्ते, न्यानं मयं सास्वतं धुवं ॥
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