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मंगल चौथे काल के अन्त सो वीर जिनंद भये । समवशरण के हेतु सो विपुलाचल गये || उपवन आये देव सो मन आनन्द भये । षट् ऋतु फूले फूल सो अचरज मन भये ।। उपवन लियो है विश्राम माली ने सुध लही।
उकटे काठ फल फूल मालती खिल रही । ऐसी मालती फल फूल रहियो, सरवर हंस मोती चुनें। गाय व्याघ्र जहां करत क्रीड़ा, और अचरज को गिनें ॥ सहर्ष फूल लै चलो है माली, नृपति जाय सुनाइयो । यह देख अचरज भूप मोहे, रानी चेलना तुरत बुलाइयो । निज शत्रु जो घर माहिं आवै, मान बाको कीजिये । शुभ ऊँ ची आसन मधुर वाणी, बोल के यश लीजिये | भगवान सुगुण निधान मुनिवर, देखकर मन हर्षियो । पड़गाह लीजे दान दीजे, रत्न वर्षा बरसियो | निज श्रेणि अन्तर हिय निरन्तर, जैन जुगति सुनाइयो ।
राज्य परिग्रह छांड़ चालो, प्रिय सिद्ध मंगल गाइयो । इस प्रकार हजारों श्रावक नर, नारियों के बीच जन समूह के साथ राजा श्रेणिक मान सहित रथारूढ़ हुए समवशरण में जा रहे थे, इस समय तक श्रेणिक का श्रद्धान जैन धर्म के विपरीत था तथा उन्होंने विपरीत श्रद्धान से मुनिराज के गले में सर्प डालकर सातवें नरक की गति बाँध ली थी। जब आप समवशरण के पास पहुँचे तब मानस्तम्भ देखते ही आपके हृदय का मान दूर हो गया। तब वे राजा श्रेणिक - (२) रथ से उतर पयादे भये, जय जय करत सभा में गये ।
जब जिनेन्द्र देखे चित लाय, जन्म जन्म के पाप नशाय ॥ जय जय स्वामी त्रिभुवन नाथ, कृपा करो मोहि जान अनाथ । हों अनाथ भटको संसार, भ्रमतन कबहूँ न पायो पार || यासे शरण आयो मैं सेव, मुझ दु:ख दूर करो जिनदेव । कर्म निकंदन महिमा सार, अशरण शरण सयश विस्तार || नहिं सेऊँ प्रभु तुमरे पांय, तो मेरो जन्म अकारथ जाय । सुरगुरू वन्दौं दया निधान, जग तारण जगपति जग जान ॥ दु:ख सागर सों मोहि निकास, निर्भय थान देहु सुख वास । मैं तुव चरण कमल गुण गाय, बहु विधि भक्ति करूं मन लाय ॥ दोउ कर जोड़ प्रदक्षिणा दई, निर्मल मति राजा की भई । श्रेणिक वन्दे गौतम पांय, नर कोठा में बैठे जांय ||
मरगुरू वन्दापहि निकास, धि भक्ति की
भई ।