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________________ ९४ (१) मंगल का अर्थ - चौथे काल के अन्त में तीर्थंकर जिनेन्द्र भगवान महावीर स्वामी हुए और वे प्रभु समवशरण के निमित्त विपुलाचल पर्वत (राजगृही) पधारे। विपुलाचल पर्वत के उपवन में वीतरागी देव के चरण कमल पड़ने से मन आनंदित हो गया और भगवान के पधारते ही छहों ऋतुओं के फल फूल खिल उठे यह देखकर मन में आश्चर्य हुआ। उपवन में परम शांति छाई है, माली ने सुध लही अर्थात् खबर ली उपवन की तरफ गया और देखा कि सारे ही वृक्ष हरे भरे हो रहे हैं, फल फूल लग रहे हैं और मालती की छटा खिल रही है। ऐसी सुंदर मालती फल फूल रही है, सरोवर में हंस मोती चुग रहे हैं, गाय और सिंह एक साथ विचरण कर रहे हैं और भी अनेकों आश्चर्य हो रहे हैं। माली ने अत्यंत हर्ष पूर्वक फूल लिये और राजाधिराज महाराज श्रेणिक के पास जाकर सभी समाचार कह सुनाये । यह सब देखकर राजा श्रेणिक मोहित होते हुए आश्चर्य चकित हुए और उन्होंने उसी समय रानी चेलना को बुलाया । (रानी चेलना ने विनय पूर्वक राजा श्रेणिक से कहा कि ) अपना शत्रु भी यदि अपने घर आये तो उसका सम्मान कीजिये, बैठने के लिये शुभ उच्चासन प्रदान कर मधुर वाणी बोलकर यश को प्राप्त कीजिये (यहाँ तो वीतरागी केवलज्ञानी भगवान ही पधारे हैं) ऐसे अनंत गुणों के निधान भगवान और वीतरागी भावलिंगी मुनिवर को देखकर मन हर्ष से भर जाये, साधु को पड़गाह कर ऐसी भक्ति से दान दीजिये कि रत्नों की वर्षा हो जाये। (इस प्रकार प्रेरणा देते हुए) रानी चेलना ने जैन धर्म के सिद्धांत युक्तिपूर्वक श्रेणिक महाराज को सुनाये । राजा श्रेणिक ने अपने अंतर हृदय में निरंतर चिंतन किया और रानी चेलना से कहा कि प्रिय ! राज्य परिग्रह सब छोड़कर चलो और सिद्ध प्रभु के मंगल गाओ । (२) रथ से उतर....चौपाइयों का अर्थ - राजा श्रेणिक रथ से उतर कर पैदल चलने लगे और जय जयकार करते हुए समवशरण (धर्म सभा) में पहुंचे। जब प्रभु महावीर स्वामी के भाव पूर्वक दर्शन किये तब जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो गये। राजा श्रेणिक भगवान की प्रार्थना स्तुति करते हुए कहते हैं - जय हो, जय हो, हे स्वामी ! आप तीन लोक के नाथ हैं, मुझे अनाथ जानकर मुझ पर कृपा करो। मैं अनाथ होकर संसार में भटक रहा हूँ और संसार में भ्रमण करते हुए मैंने कभी भी पार नहीं पाया । इसलिए मैं आपकी चरण शरण में आया हूँ, हे जिनदेव ! मेरा दुःख दूर करो। आपकी महिमा से मेरे कर्मों का क्षय हो जाये यही आपकी महिमा का सार है, अशरण को शरण देने में आपके सुयश का विस्तार है। हे प्रभु! आप जैसे वीतरागी परमात्मा के चरण कमलों में नहीं रहूँगा तो मेरा जन्म व्यर्थ ही चला जायेगा। आप इन्द्रों, देवताओं के भी गुरू हैं, संसार के तारण हार हैं, आपको तीन लोक का त्रिलोकी नाथ जानकर हे दया के निधान! मैं आपकी वन्दना करता हूँ । दुःख रूप संसार सागर से मुझे निकालकर हे प्रभु! मुझे निर्भय सुखरूप स्थान में वास दीजिये। मैं आपके अनन्त चतुष्टय स्वरूप आत्म गुणों की स्तुति करता हूँ और आपके चरण कमलों में बहुत प्रकार से भाव पूर्वक भक्ति करता हूँ । इस प्रकार स्तुति प्रार्थना करते हुए राजा श्रेणिक ने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति पूर्वक प्रदक्षिणा दी। राजा की मति भी निर्मल हुई और राजा श्रेणिक श्री गौतम स्वामी के चरण कमलों की वंदना करके मनुष्यों के कोठा में जाकर बैठ गये ।
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
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