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आठ कर्म- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय। आठ मद - ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, जातिमद, बलमद, ऋद्धिमद, तपमद, रूपमद। शंकादि आठ दोष - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना। छह अनायतन - कुदेव, कुगुरू, कुधर्म, कुदेव को मानने वाले, कुगुरू को मानने वाले, कुधर्म को मानने वाले। तीन मूढ़ता-देवमूढ़ता, पाखंडी (गुरू) मूढ़ता, लोक मूढ़ता।
एक सौ उनचास (१४९) चौबीसी१४९ चौबीसी होने के बाद हुण्डावसर्पिणी काल आता है। एक हुण्डावसर्पिणी से दूसरे हुण्डावसर्पिणी के मध्य १४९० कोड़ाकोड़ी सागर का समय होता है। इसमें १४९ चौबीसी होती हैं। एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी १० कोड़ा कोड़ी सागर की होती है, इसलिये १४९ में १० का गुणा करने पर १४९० होते हैं। १४९ में २४ का गुणा करने पर ३५७६ होते हैं अर्थात् इतने तीर्थंकर होते हैं और १४९ में षट्काल के अनुसार ६ का गुणा करने पर ८९४ काल होते
ये ज्ञानदान........श्लोकार्थजो मुनिजनों को ज्ञान का दान करते हैं वे सदैव लोक में सुख का उत्कृष्ट रूप से भोग करते हैं तथा राज्य,शक्ति, ज्ञान बल आदि को उपलब्ध करके स्वयं मुक्ति पद को प्राप्त कर लेते हैं।
पाँच परमेष्ठीअरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी और साधु परमेष्ठी। तीन रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र। चार अनुयोग - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग । आठ ज्ञान - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान,मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान,
कुमति ज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान। चार दर्शनोपयोग - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
त्रिकाल की चौबीसी का अद्भुत योग - श्री बृहद् मंदिर विधि - धर्मोपदेश में त्रिकाल की चौबीसी का अद्भुत योग है इसके अंतर्गत अतीत की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर श्री अनंतवीर्य स्वामी जी से धर्म संस्कार आदि का प्रसाद लेकर श्री आदिनाथ जी उत्पन्न हुए और वर्तमान चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर श्री भगवान महावीर स्वामी ने भविष्य काल की चौबीसी में प्रथम तीर्थंकर होने का प्रसाद महाराजाधिराज राजा श्रेणिक को दिया।