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भगवत भाषित अर्थ अनूप, गणधर गूंथत ग्रन्थ सरूप । तहाँ भक्ति बरतै अमलान, प्रवचन भक्ति तेरमी जान ॥ १३ ॥ षट् आवश्यक क्रिया विधान, इनकी करहैं न कबहूँ हान । सावधान वरतै थिर चित्त, सो चौदहवीं परम पवित्र ॥ १४ ॥ कर जप तप पूजा व्रत भाव, प्रगट करे जिनधर्म प्रभाव । सोई मारग पर भावना, यही पंचदशमी भावना ॥ १५ ॥ चार प्रकार संघ सों प्रीति, राखे गाय बच्छ की रीति । यही सोलमी सब सुखदाय, प्रवचन वात्सल्य अभिधाय ॥ १६ ॥
॥दोहा॥ सोलह कारण भावना, परम पुण्य को खेत । भिन्न भिन्न अरु सोलहों, तीर्थंकर पद देत ॥ बंध प्रकृति जिनमत विषै, कहीं एक सो बीस । सौ सत्रह मिथ्यात में, बांधत हों निश दीस || तीर्थंकर आहार दुक, तीन प्रकृति ये जान । इनको बंध मिथ्यात में, कहो नहीं भगवान || तातें तीर्थंकर प्रकृति, तीनहि समकित माहिं । सोलह कारण सों बंधे, सबको निश्चय नाहिं ॥ तीन लोक तिहुँ काल में, पूजा सम नहिं पुन्न । गृहवासी के प्रातहिं, जिन पूजा दरशन ॥ यह थोड़ो सो कथन है, लेहु बहुत कर मान । नित उठ पूजा कीजिए, यही बड़ो परमान ॥
॥ सोरठा ॥ पूज्यपाद मुनिराय, श्री सरवारथ सिद्धि में । कह्यो कथन इस न्याय, देख लीजिये सुबुधजन || सोलह कारण भावना की जयमाला
॥दोहा॥ षोडश कारण गुण करै, हरै चतुर्गति वास । पाप पुण्य सब नाश कैं, ज्ञान भानु परकास || १ ||
॥चौपाई॥ दरसन विशुद्ध धरै जो कोई, ताको आवागमन न होई । विनय महा धारै जो प्रानी, शिव वनिता की सखी वखानी ॥ २ ॥