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शील सदा दिढ़ जो नर पालै, सो औरन की आपद टालै । ज्ञानाभ्यास करै मन माहीं, ताके मोह महातम नाहीं ॥ ३ ॥ जो संवेग भाव विस्तारै, सुरग मुकति पद आप निहारै ।। दान देय मन हरष विशेषै, इह भव जस परभव सुख देखै ॥ ४ ॥ जो तप तपै खिपै अभिलाषा, चूरै करम शिखर गुरु भाषा । साधु समाधि सदा मन लावै, तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावै ॥ ५ ॥ निशि दिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भव नीर तरैया । जो अरहंत भक्ति मन आनै, सो जन विषय कषाय न जानै ॥ ६ ॥ प्रवचन भक्ति करै जो ज्ञाता, लहै ज्ञान परमानन्द दाता । षट् आवश्यक नित जो साधै, सो ही रत्नत्रय आराधै ॥ ८ ॥ धर्म प्रभाव करे जो ज्ञानी, तिन शिव मारग रीति पिछानी । वात्सल्य अंग सदा जो ध्यावे, सो तीर्थंकर पदवी पावें ॥ ९ ॥
॥दोहा॥ ऐसी सोलह भावना, सहित धरै व्रत जोय । देव इन्द्र नर वंद्य पद, धानत शिव पद होय ।।
तारण वाणी जीओ जीवंपि जीवं, जीवन्तो न्यान दंसन समग्गं ।
बीज सुद्ध सु चरन, न्यानमयोपि नन्त सह निलयं ॥ अर्थ-जो जीता था, जी रहा है और जीता रहेगा, वह ज्ञान दर्शन से समग्र जीव तत्त्व है। त्रिकालवर्ती चैतन्य तत्त्व शुद्ध चारित्र का बीज है। वह ज्ञानमयी और अनन्त सुख का भण्डार है।
(श्री ज्ञान समुच्चय सार जी गाथा-७७२) अप्पं च अप्प तारं, नाव विसेसं च पार गच्छति ।
अप्पं विमल सलवं, कम्म विपिऊन तिविह जोएन । अर्थ- स्वयं आत्मा ही आत्मा के लिए तारणहार है। आत्मा अपने विमल स्वरूप नौका विशेष में बैठकर तीन प्रकार के योगों की एकता रूप पतवार चलाकर दुःख भरे असार संसार रूपी संसार सागर से पार हो जाती है। (श्री उपदेश शुद्ध सार जी- ४९२)
कमलं कलंक रहियं, कल लंकृत कम्म भाव गलियं च ।
ज पर्जाव विसेष, ममल सहावेन पर्जाव विलयति ॥ अर्थ- जैसे कमल कीचड़ से रहित है, उसी प्रकार संयोग में रहता हुआ ज्ञायक आत्म कमल कर्म कलंक से रहित है। जिसके आश्रय से अनेक शरीरों को प्राप्त कराने वाले कर्म भाव गल जाते हैं। कर्मोदय जन समस्त पर्यायी भाव ममल स्वभाव में रहने से विलय हो जाते हैं।
(श्री ममल पाहुड़ जी- फूलना २२,गाथा - १७)