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परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करें मुनिराज जी । तिसनाभाव उच्छेद, घटती जान घटाइये ॥ उत्तम आकिंचन गुण जानों, परिग्रह चिन्ता दुःख ही मानो । फांस तनकसी तन में सालै, चाह लंगोटी की दुःख भाले || भालै न समता सुख कभी, नर बिना मुनि मुद्रा धरैं । धनि नगन पर तन नगन, ठाड़े सुर असुर पायन परें ।। घरमांहि तिसना जो घटावें, रूचि नहीं संसार सौं ।
बहु धन बुराहू भला कहिये, लीन पर उपगार सौ ॥ ९ ॥ शीलबाड़ि नौ राख, ब्रह्मभाव अन्तर लखो ।
करि दोनों अभिलाष करहु सफल नरभव सदा ॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ । सहैं बान वरषा बहु सूरे, टिके न नैन वान लखिकूरे ॥ कूरे त्रियाके अशुचि तन में काम रोगी रति करें । बहु मृतक सड़ हिं मसान माहिं, काक ज्यों चोंचे भरें | संसार में विषबेल नारी, तज गये जोगीश्वरा । 'द्यानत' धरम दश पैड चढ़ि के शिवमहल में पग धरा ।। १० ।।
समुच्चय जयमाला दशधर्म की
दशलक्षण बंदों सदा, मन वांछित फलदाय | करहुँ आरती भारती, हम पर होहु सहाय ॥
उत्तम क्षमा जहाँ मन होई, अन्तर बाहिर शत्रु न कोई ॥ १ ॥ उत्तम मार्दव विनय प्रकासै, नाना भेद ज्ञान सब भासै ॥ २ ॥ उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति टाल सुगति उपजावै ॥ ३ ॥ उत्तम सत्य वचन मुख बोलै, सो प्रानी संसार न डोलै ॥ ४ ॥ उत्तम शौच लोभ परिहारी, संतोषी गुण रतन भंडारी ॥ ५ ॥ उत्तम संयम पालै ज्ञाता, नरभव सफल करे, लह साता ।। ६ ।। उत्तम तप निरवांछित पालै, सो नर करम शत्रु को टालै ॥ ७ ॥ उत्तम त्याग करै जो कोई, भोग भूमि सुर शिव सुख होई ॥ ८ ॥ उत्तम आकिंचन व्रत धारें, परम समाधि दशा विस्तारै ॥ ९ ॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर सुर सहित मुक्ति फल पावे ॥ १० ॥
: दोहा :
करै करम की निरजरा, भव पींजरा विनाशि | अजर अमर पद को लहै 'द्यानत' सुख की राशि ॥
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