________________
४२
उँचे सिंहासन बैठ बसुनप, धरम का भूपति भया । बच झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया ॥ ४ ॥
धरि हिरदै सन्तोष, करह तपस्या देह सों ।
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में || उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना । आशा फांस महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ॥ प्राणी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभावते । नित गंग-जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि दोष सुभावतें ॥ ऊपर अमल मल भरयो भीतर, कौन विध घट शुचि कहैं । बह देह मैली सगुन थैली, शौच गन साध लहैं ॥ ५ ॥
काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री मन वश करो ।
संयम रतन संभाल, विषय चोर बहु फिरत हैं । उत्तम संयम गहु मन मेरे, भव भव के भाजै अघ तेरे । सुरग नरक पशुगति में नाहीं,आलस हरन करन सुखठांही । ठाहीं पृथ्वी जल आग मारूत, रूख त्रस करुना धरो । सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो || जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, त रूल्यो जग कीच में । इक घरी मत विसरो करो नित, आव जममुख बीच में ॥ ६ ॥
तप चाहें सुरराय, करमशिखर को वज है ।
द्वादश विधि सुखदाय; क्यों न करै निज सकति सम | उत्तम तप शिवमार्ग बखाना,करम शिखर को वज समाना। वस्यो अनादि निगोद मझारा,भू विकलत्रय पशुतन धारा ॥ धारा मनुषतन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता । श्री जैनवाणी तत्वज्ञानी भई विषमपयोगता ॥ अति महा दुर्लभ त्याग, विषय कषाय जो तप आदरें । नरभव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलशा धरै ॥ ७ ॥
दान चार परकार, चार संघ को दीजिये ।
धन बिजुली उनहार, नरभव लाहो लीजिये || उत्तम त्याग कह्यो जग सारा औषधि शास्त्र अभय आहारा । निहचे रागद्वेष निरवारै ज्ञाता दोनों दान संभारे ॥ दान संभारे कूप जल सम, दरब घर में परिनया । निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाया खोया बह गया । धनि साधु शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोधों । बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाहीं बोध को ॥ ८ ॥