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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.७]
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ज्ञायक ऊपर चढ़कर ऊर्ध्वरूप विराजित रहता है अन्य सब राग विकल्प नीचे रह जाते हैं। चाहे जैसे शुभ भाव आयें तीर्थंकर गोत्र के शुभ भाव भी आवें तो भी वे नीचे ही रहते हैं। द्रव्य दृष्टिवंत को ऐसा अद्भुत जोर रहा करता है।
(परमागमसार) अगर ऐसी स्थिति हो जाती है तो समझ लो, मान लिया फिर तो किसी से कोई संबंध ही मतलब ही नहीं रहा।
प्रश्न-यह बात सुनते हैं तो समझ में तो आती है। सत्य है घुव है प्रमाण है ऐसा लगता भी है पर यह बात चित्त में नहीं बैठती, ऐसी दशा में रहते नहीं है इसका क्या कारण है ऐसी दशा में रहने का उपाय क्या
समाधान- बात है जरा सी, अफसाना बड़ा है।
चित्त में नहीं बैठती, तो भूत खड़ा है। चित्त में बैठने,धारणा का तो सब खेल है जब तक स्थित प्रज्ञ, स्वरूप में स्थित, ज्ञान भाव में स्वस्थ्य होश में नहीं रहते तब तक यह स्थिति नहीं बन सकती है। स्थित प्रज्ञ होने के निम्न उपाय हैं
१. जिस काल में साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं का अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने आप से अपने आप में ही संतुष्ट है, उस काल में वह स्थित प्रज्ञ कहलाता है।
२. दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थित प्रज्ञ है।
३. सब जगह आसक्ति रहित हुआ,जो मनुष्य उस-उस, शुभ-अशुभ कर्मोदय को प्राप्त हुआ, न तो अभिनन्दित (प्रसन्न) होता है और न द्वेष करता है, वह स्थित प्रज्ञ है।
४. पांचों इन्द्रियों को विषयों से हटा लेने के बाद भी जब तक रस बुद्धि नहीं छूटती तब तक प्रयत्न करने पर भी बुद्धिमान मनुष्य की भी पृथमन शील इन्द्रियां उसके मन को बल पूर्वक हर लेती हैं। रस बुद्धि का मतलब है "ऐसा भोग करता या ऐसा भोग करूंगा।"मन की अतृप्त वासना, अच्छे-अच्छे
साधुओं को भ्रष्ट कर देती है। अत: साधक को कभी भी इन्द्रियां वश में हैं ऐसा विश्वास और अभिमान नहीं करना चाहिए। जो सम्पूर्ण इन्द्रियों और मन को वश में करके तीव्र वैराग्यवान होता हुआ आत्म स्वरूप की साधना आराधना में ही रत रहता है वह स्थित प्रज्ञ होता है।
५.मानव शरीर मिलना, साधना में रूचि होना, साधना में लगना और साधना की सिद्धि होना महान सौभाग्य से होता है।
६. आत्म स्वरूप का चिन्तन-मनन-आराधन न करके विषयों का चिंतन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है, आसक्ति से कामना पैदा होती है, कामना से क्रोध पैदा होता है, क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ भाव) हो जाता है, सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है, स्मृति भ्रष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है, बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।
७. वशीभूत अंत:करण वाला साधक राग द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ अंत:करण की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है। प्रसन्नता प्राप्त होने पर साधक के सम्पूर्ण दु:खों का नाश हो जाता है और ऐसे प्रसन्न चित्त वाले साधक की बुद्धि निस्संदेह बहुत जल्दी अपने आत्म स्वरूप में स्थिर हो जाती है।
८. जिसके मन और इन्द्रियां वश में संयमित नहीं होती हैं उसकी निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती, उसमें कर्तव्य परायणता की भावना नहीं होती, उसका पुरूषार्थ काम नहीं करता, उसको शांति नहीं मिलती, फिर शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है।
जो अशांत अनिश्चय बुद्धि वाला है उसके हृदय में हरदम-हलचल मची रहती है। बाहर से कितने ही अनुकूल भोग आदि मिल जायें तो भी वह अशांत उद्विग्न दु:खी ही रहता है, सुखी नहीं हो सकता।
सब अपनी ही बात है, देखलो, समझ लो, यह तो मौका मिला है, दांव लगा है इसका सदुउपयोग हो जाये तो बेड़ा पार है।
प्रश्न-चाहते तो बहुत हैं पर यह सब हो नहीं रहा इसे क्या करें? समाधान-धर्म की चर्चा,मन बहलाना, पतंग उड़ाना नहीं है, यह तो