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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.८ ]
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हम स्वयं अपने आप को देखें कि हमारे अंदर में क्या है ? सद्गुरू बता रहे हैं, केवलज्ञानी परमात्मा भगवान महावीर ने प्रत्यक्ष अनुभव प्रमाण बताया है, सामने सब प्रत्यक्ष दिख रहा है, अब तो स्वयं की बात है।
प्रश्न-बराबर यह बात सत्य है धुव है प्रमाण है अब इसके लिए सबसे पहले क्या करें?
इसके समाधान में सद्गुरू श्री जिन तारण स्वामी आगे आठवीं गाथा कहते हैं
गाथा-८ संमिक्त सुद्धं हृिदयं ममस्तं, तस्य गुनमाला गुथतस्य वीर्ज। देवाधिदेवं गुरू ग्रंथ मुक्तं , धर्मं अहिंसा षिम उत्तमाध्यं ।
मुकाबले में कबड्डी का खेल है, शूरवीरों का मार्ग है जिसमें दम हो वह सामने आये। धर्म का निर्णय निज शुद्धात्मानुभूति निश्चय सम्यग्दर्शन तो शुद्ध निश्चय नय से ही होता है, पर उस मार्ग पर चलने, धर्म साधना करने, उस दशा में रहने के लिए निश्चय-व्यवहार का समन्वय आवश्यक है क्योंकि अभी वर्तमान में कर्म सापेक्ष कर्म संयोगी दशा में बैठे हैं तथा एक दूसरे का निमित्त नैमित्तिक संबंध भी है, जिन सिद्धांत को समझने और जैन दर्शन के मार्ग पर चलने के लिए चार अनुयोग-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, पांच समवाय (स्वभाव, निमित्त, पुरूषार्थ, काललब्धि और नियति) तथा निश्चय और व्यवहार का ज्ञान आवश्यक है, तभी सही धर्म मार्ग पर चल सकते हो। इन सबका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है और इन सबको जानने वाला ही ज्ञानी है। तारण पंथ तो यह है-निज हेर बैठो नहीं तो रार करो। संसार तो आवहिं जाहिं हम तो संसार छुड़ावहिं । (छद्मस्थवाणी)
साधना के प्रारंभ में साधक के अंत:करण में द्वंद रहता है। सत्संग, स्वाध्याय, विचार आदि करने से वह परमात्म प्राप्ति को अपना ध्येय तो मान लेता है पर उसके मन और शरीर की स्वाभाविक प्रवृत्ति भोग भोगने और माया के संग्रह करने में रहती है इसलिए साधक कभी परमात्म तत्व को प्राप्त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रह में उलझ जाता है, इस प्रकार साधक के अंत:करण में द्वंद (भोग भोगू या साधना करूं) चलता रहता है। इस द्वंद पर ही अज्ञान और अहं टिका है स्वयं का दृढ़ संकल्प और अटल निर्णय ही निर्द्वद बनाता है।
हमें सांसारिक भोग और माया के संग्रह में लगना ही नहीं है। प्रत्युत एक मात्र परमात्म तत्व को ही प्राप्त करना है. हमेशा-निराकल आनंद में रहना है ऐसा दृढ़ निश्चय होने तथा वैराग्य की तीव्रता होने पर फिर द्वंद नहीं रहता और सहज ही अपने ममल स्वभाव की रूचि जग जाती है।
संसग्ग कम्म विपन, सारं तिलोय न्यान विन्यानं । रूचियं ममल सुभावं, संसारे तरन्ति मुक्ति गमनंच ॥ ममल पाहुड़।।
सारभूत भेदज्ञान के द्वारा अपने ममल स्वभाव की रूचि करे तो यह सारे संयोग और कर्मक्षय हो जायेंगे संसार सागर से तरकर मुक्ति को प्राप्त होंगे।
शब्दार्थ- (संमिक्त सुद्धं) शुद्ध सम्यक्त्व से (हृिदयं ममस्तं) मेरा हृदय-परिपूर्ण है (तस्य) उसके (गुनमाला) गुणों की माला (गुथतस्य) गूंथने का (वीज) पुरुषार्थ करो (देवाधिदेवं) देवों के अधिपति देव अर्थात् सौ इन्द्रों द्वारा पूज्य परमात्मा (गुरू ग्रंथ मुक्त) सारे बंधनों से मुक्त गुरू (धर्म अहिंसा) अहिंसा धर्म वाला (षिम उत्तमाध्यं) उत्तम क्षमादि दस धर्म ।
विशेषार्थ-शुद्ध सम्यक्त्व से मेरा हृदय परिपूर्ण है, हे आत्मन् ! निज स्वरूप की गुणमाला गूंथने का पुरूषार्थ करो। निज स्वभाव में रहो, यही सत्पुरूषार्थ है । निज शुद्धात्मा, देवों के देव-सौ इन्द्रों द्वारा पूज्य अरिहंत-सिद्ध परमात्मा के समान, सारे बंधनों से मुक्त निग्रंथ वीतरागी सद्गुरू के समान गुणों वाला, उत्तम क्षमादि धर्म का धारी अहिंसा मयी वीतराग स्वरूप-परम शुद्ध स्वभाव वाला है, पुरूषार्थ पूर्वक निज आत्म द्रव्य के गुणों का विकास करो।
यहाँ इस प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है कि सबसे पहले क्या करें?
तो सद्गुरू कहते हैं कि सबसे पहले सम्यक्त्व की शुद्धि करो अर्थात् मैं आत्मा शुद्धात्मा, परमात्मा हूँ, यह बात हृदय से स्वीकार हो गई इसको पक्का