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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.७]
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चेतन सत्ता हूं फिर इसमें देखने अनुभव करने स्वीकार करने की क्या बात है। जब ऐसा हूं तो हूं फिर यह इतनी उठा-पटक झंझट खेंचातानी क्यों हो रही है?
समाधान- सिद्ध स्वरूपी ध्रुव तत्व तो हूं पर ऐसा अपने को जाना-माना कहां है, स्वीकार श्रद्धान ही कहां किया है? अभी तो नरनारकादि पर्याय-नाम रूप आदि संयोग ही मैं हं यही सब मेरे हैं ऐसी मान्यता माने बैठे हैं: इसीलिए तो अनादि से यह चार गति चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाना पड़ रहे हैं, जहां यह मान लें वहां तो सब काम ही बन जाये अपने ध्रुव धाम सिद्ध सिद्धालय में परमानंदमय परमात्मा हो जायें।
प्रश्न-इसमें क्या हैलो अभी मान लिया कि मैं सिख स्वरूपी धुव तत्व शुद्धात्मा हूं तो क्या इतने से सम्यग्दृष्टि ज्ञानी मुक्त परमात्मा हो गये?
समाधान- हां, यदि वास्तव में मान लिया तो हो गये क्या, हो ही भाई इतना सारा ही तो खेल है। एक तरफ अनन्त चतुष्टय मयी ध्रुव तत्व, शुद्ध मुक्त स्वभाव है और एक तरफ अनन्त संसार है, दृष्टि का सारा खेल है, सम्यग्दृष्टि मुक्त परमात्मा ही है और मिथ्यादृष्टि अनन्त संसारी है, होने की बात ही नहीं है।
जिस धर्मात्मा ने निज शुद्धात्म द्रव्य को स्वीकार करके परिणति (दृष्टि) को स्व अभिमुख किया वह प्रतिक्षण मुक्ति की ओर गतिशील है, वह मुक्ति पुरी का प्रवासी हो गया। मेरे अनन्त संसार भव भ्रमण होगा ऐसी शंका उसे उत्पन्न ही नहीं होती। उसे स्वभाव के बल से ऐसी निशंकता है कि मेरी मुक्त दशा, अब अल्पकाल में ही प्रगट हो जायेगी।
धर्मी को पर सम्मुख उपयोग के समय भी सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक जितना वीतराग भाव हुआ है उतना धर्म तो सतत वर्तता है।
जब जीव आनन्द स्वभाव का अनुभव करने में समर्थ हुआ तब से समस्त जगत का साक्षी हो गया है। पर वस्तु मेरी है, ऐसी दृष्टि छूटने से वह उसका साक्षी हुआ है।
देह की स्थिति तो मर्यादित है ही, कर्म की स्थिति भी मर्यादित है
और विकार की स्थिति भी मर्यादित है। स्वयं की पर्याय में जो कार्य होता है वह भी मर्यादित है। अन्तर में स्वभाव में मर्यादा नहीं होती, धर्मी की दृष्टि अमर्यादित स्वभाव पर होती है।
सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानकर उसकी प्रतीति कर स्वरूपाचरण कर ऐसा अनुभव करता है कि मैं तो चैतन्य मात्र ज्ञान ज्योति हूँ, शुद्ध बुद्ध चैतन्य घन स्वयं ज्योति सुखधाम हूँ, मैं चैतन्य, ज्ञान. दर्शन मात्र ज्योति हूँ. मैं रागादि रूप बिलकुल नहीं हूँ।
त्रिकाली ध्रुव शुद्धात्मा को स्वीकार करना ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान है। इसकी अनुभूति में लीन रहना ही सम्यग्चारित्र है। इससे ही केवलज्ञान होता है। धर्मी की दृष्टि शुद्ध आत्म तत्व से खिसकती नहीं है। यदि द्रष्टि वहां से हटकर वर्तमान पर्याय में रूके, एक समय की पर्याय में उलझे, पर्याय की रूचि हो जाये तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाये।
सम्यग्दृष्टि को पांच इन्द्रियों के विषय के अशुभ राग होते हैं परन्तु वे उनमें से हटकर ध्यान में बैठते ही निर्विकल्प रूप से जम जाते हैं। इसका कारण उनका जोर पूर्ण वस्तु पर होना है। बीच में विकल्प आते हैं. पर वे तो उनसे भिन्न-भिन्न ही हैं।
ज्ञानी को निरंतर अपनी सुरत रहती है। मैं तो यह शुद्ध-ध्रुव टंकोत्कीर्ण अप्पा ज्ञान मात्र हूँ यह कुछ मैं नहीं हूं, यह कोई भी ज्ञेय मेरे नहीं है।
(तारण तरण उपदेश शुद्ध सार) जिसे यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई है उसे दृष्टि के जोर में केवलज्ञान ज्ञायक ही भाषित होता है। शरीरादिक कुछ भी भाषित नहीं होता, भेदज्ञान की परिणति ऐसी दृढ़ हो जाती है कि स्वप्न में आत्मा शरीर से भिन्न भाषित होता है। दिन में तो भिन्न भाषित होता ही है पर रात्रि में निद्रा में भी आत्मा निराला ही भाषित होता है। सम्यग्दृष्टि के भूमिकानसार बाहय वर्तन होता है परन्तु बाह्य वर्तन में भी किन्हीं भी संयोगों में उसकी ज्ञान वैराग्य शक्ति कोई अनोखी प्रकार की होती है। बाह्य में वह चाहे जैसे प्रसंगों-संयोगों में जुड़ा हुआ दिखे तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक रूप ही से भाषित होता है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बदल जाये तो भी स्वरूप अनुभव के विषय में निशंकता रहती है।