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[मालारोहण जी
बहिर्दृष्टि लोगों को सम्यग्दर्शन की महिमा ख्याल में नहीं आती। आत्मा पूर्ण प्रयत्न से शुद्ध चिदानन्द, ध्रुव स्वभाव की पहिचान करके सम्यग्दर्शन करना ही जिनेन्द्र परमात्मा महावीर भगवान और सब संतों का महान उपदेश है। जैसे बने तैसे इस बात का उपाय और उद्यम करना, जिससे मिथ्यात्व का नाश होकर सम्यक्त्व प्रगट हो यही सद्गुरू का संदेश-उपदेश है।
प्रश्न- क्या सम्यग्दर्शन ऐसी बात करने अथवा अपने को आत्मा परमात्मा ध्रुव-शुद्ध मान लेने से होता है तथा क्या मुक्ति सुख ऐसी दशा में रहते हुये मिल जाता है?
समाधान - गाथा क्र. २ से ५ तक जैसा भेदज्ञान तत्वनिर्णय करने को कहा गया है। वैसी यथार्थ में अन्तर दृष्टि बदले और निज शुद्धात्मानुभूति होवे तो सम्यग्दर्शन हो जाता है। कहने बातें करने या मान लेने की बात नहीं है। व्यवहार में यह सब उस ओर की रूचि जगाने, पुरुषार्थ करने की अपेक्षा कहा जाता है क्योंकि अनादि से यह जीव अपने सत्स्वरूप को भूला यह शरीर ही मैं हूँ। यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इन सबका कर्ता हूँ - ऐसे अपने अज्ञान मिथ्यात्व के वशीभूत, चारगति-चौरासी लाख योनियों में भव भ्रमण कर रहा है। इससे इसकी यह दशा हो रही है। ज्ञानार्णव में कहा है -
"महा आपदाओं से पूर्ण दुःख रूपी अग्नि से प्रज्वलित और गहन इस संसार रूपी मरूस्थल में यह जीव अकेला ही भ्रमण करता है। यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म फल भोगता है और सर्व प्रकार से एकाकी है। समस्त गतियों में एक गति से दूसरे शरीर को धारण करता है।"
संयोग-वियोग में, जन्म-मरण में तथा सुख दुःख भोगने में कोई भी इसका साथी नहीं होता। यह जीव मित्र, स्त्री, पुत्रादि को मोह का निमित्त बनाकर उनके सम्बंध से अपने संतोष के लिए जो कुछ पुण्य-पाप, अच्छा-बुरा कार्य करता है। उसका फल भी नरकादि गतियों में स्वयं अकेला ही भोगता है, कोई दूसरा हिस्सेदार नहीं बनता । प्रकार के पापों द्वारा धनोपार्जन होता है, उसके भोगने में तो पुत्र - मित्रादि अनेक साथीदार हो जाते हैं परन्तु अपने बांधे हुये पापकर्म
गाथा क्रं. ६ ]
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के सम्बंध से होने वाले घोर दुःख को सहन करने में कोई साथी नहीं होता । प्रत्यक्ष में देखता है कि संसार में मोहवश, प्राणी अकेला ही जन्म-मरण पाता है, उसके किसी भी दुःख में कोई साथी नहीं, शरण नहीं है फिर भी जीव अपने अनादि-अनन्त, एकस्व स्वरूप को नहीं देखता यह बड़ी भारी भूल है, उसका कारण स्वयं कृत अज्ञान है ।
यह मूढ़ जीव जिस समय मोहवश पर को अपना मानता है। मिथ्यात्व रागादि को कर्तव्य मानता है और तद्द्रूप परिणमन करता है। उस समय जीव अपने को अपने ही दोष से बांधता है। अत: सद्गुरू कहते हैं कि
लेहु रे लेहु, जैसे ले सकहु तैसे लेहु, उठ जागहु, का सोवत हो, अनन्त भव भवान्तर भ्रमण करते भये, अवहिं न लेहु रे । (छद्मस्थ वाणी)
इसलिए जाग्रत हो आत्मा का भान कर ले। आत्मा को पहिचाने बिना छुटकारा नहीं है। यह दुःख दूर करने के लिए तीनों काल के ज्ञानी एक ही बात बता रहे हैं। "आत्मा को पहिचानो-अप्प दीपो भव" ।
जिसने खेत में बीज नहीं बोया और वर्षा हुई तो उस वर्षा से उसे कुछ भी लाभ नहीं होता, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन न होने से यह मानव जीवन व्यर्थ चला जायेगा । सद्गुरू के वचन सुनकर भी उनका अभिप्राय ध्यान में रखना दुर्लभ है, क्योंकि जीवादि वस्तु का स्वरूप सूक्ष्म होने से तथा पहले कभी सुनने में आया न होने से उनका अभिप्राय समझना कठिन है। श्रद्धा प्रगट करना तो दुर्लभ है।
मनुष्य को सत्धर्म का स्वरूप महा पुरुषार्थ से समझ में आता है, ज्ञान होने के बाद धर्म में प्रवृत्ति करने में उससे भी अधिक पुरूषार्थ की आवश्यकता है। यह बातें करने का समय नहीं है, यह तो ऐसा सत्श्रद्धान करके अपने में उतर जाने का समय है ।
सम्यग्दर्शन सहज साध्य है। अपनी रूचि और पुरूषार्थ की बात है । दृष्टि पलटने में देर नहीं लगती और दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाती है। जैसे- अपनी बच्ची का सम्बंध कर देने पर उसकी दृष्टि अन्तर भावना बदल