________________
८१]
[मालारोहण जी
जाती है। फिर उसकी क्या दशा होती है। यह सब अनुभव प्रमाण है।
ऐसे ही सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की अन्तरदृष्टि भावना बदल जाती है तो मुक्ति सुख अभी इसी समय मिल जाता है। हम भी अपने सत्स्वरूप को जान लें और भेदज्ञान पूर्वक इन शरीरादि संयोगों से भिन्न न्यारे हो जायें, तो अपनी भी सारी झंझट मिट जाये, यह भय, विकल्प, चिन्ता सब खत्म हो जाये ।
शल्य, विकल्प से रहित हो जाने का नाम ही मुक्ति सुख है । निर्विकल्प निजानन्द में होना ही मुक्ति सुख है। बंधन से छूट जाने का नाम मुक्ति है।
जीव अपनी मिथ्या मान्यता से बंधा है। सत्श्रद्धान से अभी मुक्त हो सकता है। मुक्ति का सुख सम्यग्दर्शन होने चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ हो जाता है । उस अतीन्द्रिय आनन्द निराकुल निर्विकल्प अनुभूति का नाम ही मुक्ति सुख है, जब ऐसी अनुभूति होती है तभी जीव को संसार दुःख रूप लगता है और वह उससे छूटने के लिए छटपटाने लगता है तथा अतीन्द्रिय आनन्द मुक्ति सुख पाने के लिए पुरूषार्थ करने लगता है।
आत्म ज्ञानी संत ग्रहवास में रहते हुये भी अन्तर से विरक्त होते हैं । उनकी अन्तर दशा की बात बड़ी अलौकिक है। उसे अज्ञानी नहीं जानते न जान सकते।
ज्ञानी गृहस्थ आश्रम में रहने पर भी उसका अन्तर हृदय जुदा ही होता है। वह समझता है कि मैं परमानन्द मयी स्वयं सिद्ध परमात्मा हूँ, राग का एक कण भी मेरा नहीं है। निर्बलता के कारण इस अस्थिरता में जुड़ता हूँ। यह मेरी कमजोरी है। मुझे कलंक है, इसी क्षण वीतराग होना बने तो अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। भले चौथे या पांचवे गुणस्थान में हो तथापि चैतन्य के भान सहित ज्ञानानंद स्वरूप मुक्ति का सुख भोगता है। उसे मरण की पीड़ा की अपेक्षा विषयों की पीड़ा बहुत असह्य, असाध्य लगती है अत: ज्ञानी, ज्ञान स्वभाव की प्रीति करना सुखदायक मानते हैं और इससे जब वह निग्रंथ वीतराग दशा प्रगट होती है, तब तो प्रत्यक्ष ही मुक्ति श्री से रमण करते हैं। इन सारी बातों का वर्णन सद्गुरू तारण स्वामी ने ममल पाहुड़ ग्रंथ में किया है।
गाथा क्रं. ६ ]
[ ८२
जिन्हें आत्मा को समझने के लिए अन्तर में सच्ची धुन और छटपटी लगे उन्हें अन्तर मार्ग समझ में आये बिना रहे ही नहीं।
स्वरूप लीला जात्यन्तर है, मुनि की दशा अलौकिक है, मुनिराज स्वरूप उपवन में रमते रमते कर्मों का नाश करते हैं यह "लीला अप्प सहावं " (ज्ञान समुच्चयसार) ।
सम्यग्दृष्टि की लीला भी जात्यन्तर है, कोई सम्यग्दृष्टि युद्ध में हों वह वहाँ से घर लौट कर ध्यान में बैठते ही निर्विकल्प आनन्द का अनुभवन करते हैं। अरे! कभी तो लड़ाई के प्रसंग में हों तो भी समय मिलते ही ध्यानस्थ हो जाते हैं। संसार के अशुभ भावों में पड़े हों तो वहाँ से भी खिसककर दूसरे ही क्षण ध्यान में बैठते ही निर्विकल्पता हो जाती है, यह वस्तु अन्तर में मौजूद है, उसके माहात्म्य के जोर से निर्विकल्पता हो जाती है।
जिसे राग से भिन्नता हुई, स्वरूप में एकता हुई आनन्द के खजाने के ताले खुल गये वह अशुभ भाव से खिसककर ध्यान में निर्विकल्प मगन हो जाता है।
यह सब चमत्कार पूर्णानन्द के नाथ को जानने का है। सम्यग्दर्शन में पूर्णानंद के नाथ के प्रगट होने का है, सम्यग्दर्शन में पूर्णानन्द का सम्पूर्णतः कब्जा हो जाता है, यह उसकी जात्यन्तर लीला है ।
अरे ! कोई जीव तो निगोद से निकलकर आठ वर्ष की आयु में सम्यग्दर्शन या तुरन्त मुनि हो स्वरूप में एकाग्र होते ही अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्रगट कर लेते हैं और अन्तर्मुहूर्त में देह छोड़ सिद्ध हो जाते हैं।
स्वरूप की जात्यन्तर लीला तो कोई अद्भुत है परन्तु सम्यग्दर्शन बिना, व्रत करे, तप करे, घरद्वार छोड़कर मुनि हो जाये तो भी इसकी लीला जात्यन्तर नहीं होती, संसार की लीला थी और वही की वही रहती है।
(परमागम सार ३६३)
अतः सम्यग्दर्शन और मुक्ति सुख एकार्थ है और यह अभी इसी दशा में हो सकता है।