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[मालारोहण जी
अनन्त गुण स्वरूप आत्मा उसको एक रूप, शुद्ध स्वरूप, ध्रुव तत्व को, दृष्टि में लेकर, उसे एक को ध्येय बनाकर, उसमें एकाग्रता का प्रयत्न करना, यही प्रथम से प्रथम सुख शांति और मुक्ति का उपाय है। आत्मा, पर का कर्ता नहीं राग का भी कर्ता नहीं, राग से भिन्न ज्ञायक मूर्ति हूँ, ऐसी प्रतीति करना ही सम्यग्दर्शन की विधि है ।
राग से भिन्न होना पर पदार्थ और एक समय की अशुद्ध पर्याय से भिन्न होना यह साधन है । प्रज्ञा छैनी को साधन कहो, या अनुभूति को साधन कहो, यह एक ही बात है कि मैं पर से भिन्न हूँ, शुद्ध हूँ, ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ ऐसा भेदज्ञान करना संसार चक्र से छूटने का यही एक मात्र रास्ता है। दु:ख से छूटने का अन्य कोई रास्ता नहीं है।
भाई ! जन्म-मरण और उसके दुःखों से रहित होने मुक्ति सुख पाने के लिए एक मात्र मार्ग भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना ही है। बाहर में लाखों रूपये पड़े हों किन्तु जब शरीर में रोग आवे तब तड़फना पड़ता है । कोई अनुकूलता - प्रतिकूलता हो जावे तो रात दिन, हाय-हाय, चिन्ता कर मरना पड़ता है। यहाँ कोई साथ देने वाला, बचाने वाला नहीं है। यह शरीर परिवार और सारी सम्पदा छोड़कर जाना पड़ेगा अगर अपने ध्रुव तत्व ज्ञायक स्वभाव का ज्ञान श्रद्धान होगा तो यहाँ भी सुख शांति रहेगी और यही ज्ञान साधना साथ में जायेगी ।
भेदज्ञान के अभाव में अज्ञानी यह शरीरादि संयोग, राग जनित अशुद्ध पर्याय और अपने को एकमेक मानता है। इसी से यह संसार परिभ्रमण चल रहा है जो प्रत्यक्ष अहितकर है।
मैं जानने वाला देखने वाला मात्र ज्ञाता हूँ। ऐसा बारम्बार अन्तर्मुख अभ्यास करने से ज्ञाता पना प्रगट होता है। तभी विकल्प का कर्तृत्व छूटता है और तभी भूतार्थ का आश्रय रूप सम्यग्दर्शन कहने में आता है यही हितकारी प्रयोजनीय इष्ट है।
जिज्ञासु जीव को सत्य स्वीकार होने के लिए अन्तर विचार में
गाथा क्रं. ६ ]
सत्य समझने का अवकाश अवश्य रखना चाहिए ।
इस काल में बुद्धि, आयु अल्प व सत्समागम दुर्लभ है । इसलिए जिसमें अपना हित हो जन्म-मरण का नाश हो, वही सीखने समझने योग्य है।
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हजारों शास्त्राभ्यास से, एक समय का अनुभव अधिक होता है, जिसे भव-समुद्र से पार होना है उसे स्वानुभव कला सीखने योग्य है।
वस्तु की सिद्धि करने के लिए दो नय हैं लेकिन मोक्षमार्ग तो एक निश्चय को ही मुख्य करने से होता है। व्यवहार की उपेक्षा ही उसकी सापेक्षता है। आत्मा आनन्द स्वरूप है, शरीरादि संयोग, अशुद्ध पर्याय मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसा भान होते ही पर्याय में आनन्द का अंश प्रस्फुटित होता है तभी रागादि से रहित दशा होती है, यही अनेकान्त है ।
मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ, शुद्ध हूँ, ध्रुव हूँ ऐसा भान होते ही उसी समय वीतरागी नहीं हो जाता, अल्प राग द्वेष होता है, उसे टाल कर स्थिर होना, वह प्रत्याख्यान है।
मैं शुद्ध हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, रागादि विकार हैं होते हैं वे मेरी अवस्था में होते हैं परन्तु वे मेरे स्वरूप में नहीं हैं, ऐसा जानना मानना ही हितकारी है। इसी से अनादि अज्ञान, भ्रम, मिथ्यात्व दूर होते हैं।
जो आत्मा को हितकर हो, जिससे निज शुद्धात्मा की दृष्टि, उसका ज्ञान एवं आनन्द प्राप्त हो। राग-द्वेष, पुण्य-पाप तथा बंधन का लक्ष्य छोड़कर उसकी रूचि छोड़कर, नित्य ज्ञायक स्वभावोन्मुख हो तो धर्म का मुक्ति सुख प्रारम्भ और मोक्ष प्रगट हो, यह इष्ट उपदेश है।
तीन काल तीन लोक में जीव को सम्यग्दर्शन के समान कल्याण रूप अन्य कोई पदार्थ नहीं है। सम्यग्दर्शन के बिना शुभ कर्म चाहे जितना करे तो भी किंचित् भी कल्याण नहीं होता। सम्यग्दर्शन के बाद ही सम्यग्चारित्र होता है । मिथ्या श्रद्धा के समान कोई शत्रु नहीं हैं। सम्यग्दर्शन के समान कोई हितरूप नहीं है ।