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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ५ ]
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रहा है और होगा उसे कोई भी टाल फेर बदल सकता नहीं। एक-एक समय का परिणमन क्रमबद्ध निश्चित है। यह निर्णय स्वीकार हो तो परम शांति होती है।
सेठजी ने कहा- महाराज फिर इसमें पुरुषार्थ क्या रहा, यह मनुष्य भव पुरूषार्थ योनि है, इसमें अपना पुरूषार्थ तो करना चाहिए, फिर जो होना होवे, होवे । साधु ने कहा-सेठ जी यही सबसे बड़ी भूल हो रही है। पुरूषार्थ का मतलब क्या है ? पुरूष+अर्थ मिलकर पुरूषार्थ बना है तो जो पुरूष का अर्थ अर्थात् प्रयोजन है उसे ही सिद्ध करना पुरूषार्थ है। पुरूष का मतलब जीव आत्मा ब्रह्म है। यह मनुष्य होने का नाम पुरुष नहीं है। अब बताओ पुरूष का अर्थ (प्रयोजन) क्या है?
सेठजी ने कहा-महाराज पुरूषार्थ तो चार बताये गये हैं-धर्म. अर्थ. काम, मोक्ष । इनको प्राप्त करना ही पुरुषार्थ है।
साधु ने कहा-सेठ जी इनका अर्थ भी बताओ?
सेठजी ने कहा-धर्म अर्थात् सत्कार्य करना, अर्थ अर्थात् धन कमाना, काम अर्थात् शरीर विषय भोगादि परिवार का पालन पोषण करना और मोक्ष अर्थात् संसार के जन्म मरण के चक्कर से छूट जाना।
साधु ने कहा-सेठ जी बताओ, इसमें तुम्हारा सच्चा पुरूषार्थ क्या है ? सेठजी ने कहा- यह चारों ही पुरूषार्थ करना चाहिए।
साधु ने कहा-सेठजी यह भूल ही संसार का कारण बनी हुई है। धर्म का अर्थ सत्कार्य करना नहीं, अपने सत्स्वरूप को जानना है। इस शरीर में शरीर से भिन्न मैं एक अखंड, अविनाशी, चेतन तत्व भगवान आत्मा हूँ। मैं स्वयं ब्रह्म स्वरूपी परमात्मा हूँ। ऐसा सत्श्रद्धान करना ही धर्म है और अपने ब्रह्म स्वरूप में लीन होना ही मोक्ष पुरूषार्थ है। यह अर्थ और काम तो कर्माधीन हैं। उसमें जो कुछ जैसा मिल जाये,जोहोवे उसमें समता, शान्ति रखना,किसी तरह का हर्ष, विषाद, न करना, यह अर्थ और काम पुरूषार्थ है। यह मनुष्य भव पुरूषार्थ योनि अपना प्रयोजन सिद्ध करने अर्थात मोक्ष पाने के लिए ही
मिली है। इसे पर के कर्तृत्व में संसारी व्यामोह में गंवाना अपनी मूर्खता है।
सेठजी ने कहा-ठीक है महाराज, पर में हम कुछ नहीं कर सकते, वह सब प्रारब्धाधीन परिणमन है पर हम अपने में अपने लिये तो कुछ कर सकते हैं?
साधु बोले - देखो सेठजी, यह धर्म का मर्म, तत्व का निर्णय बड़ा ही सूक्ष्म है। इसमें हम अपने में अपने लिये भी कुछ नहीं कर सकते।
सेठजी बोले- महाराज यह कैसे हो सकता है ? इससे तो संसार की सारी व्यवस्था गड़बड़ हो जायेगी।
साध ने कहा- देखो सेठ जी, अभी तमने लकडी का टाल जलता देख लिया और लड़का भी मरता देख लिया पर अभी भी तुम्हारा कर्तृत्व का अंहकार नहीं टूटा तो सुनो, अब तुम्हें कल शाम को ६ बजे वह सामने के पेड पर, जहाँ राज्य का फांसीघर है, वहां फांसी लगने वाली है, अब तुम अपनी सुरक्षा कर लो।
सेठजी ने जैसे ही यह सुना, घबरा गये, पसीना छूटने लगा, वैसे ही प्राण निकलने लगे। सेठजी ने अपने नौकर से कहा कि जल्दी एक तेज दौडने वाला, अच्छा घोड़ा ले आओ। गाड़ी बैल सामान जो भी देना होवे, दे दो और बाकी जो कुछ बचे उसे लेकर घर लौट जाओ, मैं कुछ दिन बाद लौटकर आऊंगा। नौकर ने एक अच्छा घोड़ा लाकर सेठजी के हवाले कर दिया। सेठजी तुरन्त उस घोड़े पर बैठकर रवाना हो गये, तेजी से दौड़ाते हुए घोडे को, वह रात भर चले । प्रात: एक शहर में पहुँचे जो उस राज्य की राजधानी थी। रात भर जागने और चलने से सेठ जी तथा घोड़ा दोनों बहुत थक गये थे। सेठजी एक बगीचे में कुयें के पास रूक गये और घोडे से उतरे. उतरते ही बेहोश होकर गिर पडे, वहाँ एक बुढ़िया बैठी थी, उसने पानी सींचकर सेठजी को होश में किया, सेठजी ने पीने के लिये पानी मांगा। बुढ़िया ने कहा कि बेटा कुछ खाकर पानी पियो वरना ऐसे में पानी लग जायेगा और तुम मर जाओगे।
सेठजी ने कहा माँ मेरे पास तो कुछ है ही नहीं तुम ही कुछ खाने को दो,