________________
[मालारोहण जी
बुढ़िया ने कहा बेटा मेरे पास भी खाने को कुछ नहीं है । यह अंगूठी है तू ले जा और इसे बेच कर खाने का सामान ले आ मैं यहीं बैठी मिलूंगी।
७१]
सेठ अंगूठी लेकर बेचने गया, हीरे की अंगूठी थी दूकानदार ने पूछा यह कहाँ से आई, सेठ ने बताया मैं बाहर से आया हूँ, एक बुढ़िया ने दी है जो कुयें पर बैठी है।
वह अंगूठी राजा की थी, जो कुछ दिन पहले चोरी हो गई थी, दुकानदार ने सेठ को पुलिस के हवाले कर दिया और वह अंगूठी दे दी, सिपाही सेठ को पकड़कर राजा के पास ले गया।
राजा ने पूछा- यह अंगूठी कहाँ से आई ? सेठजी ने अपनी सारी व्यथा और बुढ़िया ने अंगूठी दी है, सब बता दिया। सिपाही बगीचे में गये, वहाँ पर बुढ़िया नहीं थी। सेठ का घोड़ा बंधा था, उसे लेकर सिपाही, राजा के पास आ गये। घोड़े को देख कर राजा ने कहा- यह तो कोई डाकू है। झूठ बोलता है, इसे फांसी की सजा दी जाये, उसी घोड़े की पीठ पर सेठजी को बांधकर सिपाही फांसी घर लेकर चल दिये।
संध्या के पूर्व फांसी घर के पास पहुँचकर सिपाही ने पूछा - सेठ जी कोई इच्छा हो तो बताओ
सेठ ने कहा-और कोई इच्छा नहीं है। सिर्फ यहाँ एक साधु रहते हैं, उन से मिलना है, उनके दर्शन करना है। सिपाही सेठ को लेकर साधु के पास पहुँचे ।
सेठ साधु के चरणों में गिर पड़ा-बोला गुरूदेव मुझे बचाओ, बताओ अब मैं क्या करूँ ?
साधु ने कहा - सेठ कर्तृत्व का अहंकार तोड़ो, यह शरीरादि को अपना मानना छोड़ो, निज स्वभाव से नाता जोड़ो पर से अपनी दृष्टि को मोड़ो, संयम की चादर ओढ़ो, अब इस स्थिति में बचाने वाला कोई नहीं है। भेदज्ञान पूर्वक, समाधिमरण करो
गाथा क्रं. ५ ]
[ ७२
होनी को टाला नहीं जा सकता, जो नहीं होना उसे किया नहीं जा सकता, आत्मा का शरीरादि पर से कोई सम्बंध नहीं है।
जिनवाणी पर श्रद्धा लाओ, अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करो, ध्याओ और समता शांति से संयम स्वीकार कर समाधिमरण करो, सद्गति और मुक्ति पाओ
सेठ ने उसी समय सारे पाप परिग्रह-विषय कषायों का त्याग कर दिया, संयम धारण कर लिया, सबसे क्षमायाचना कर शुद्धात्म तत्व अपने सिद्ध स्वरूप का आराधन करते हुए सारे विकल्प जालों को तोड़कर समता पूर्वक समाधिमरण किया ।
जा भवितव जा जीव की, जा विधान करि होय । जोन क्षेत्र जा काल में, सो अवश्य करि होय ॥
हानि लाभ जीवन मरण, जो होना सो होय । देव इन्द्र परमात्मा, टाल सके न कोय ॥
इस कथानक से सारी बात स्पष्ट हो गई, अगर हमें भी इस संसार के दुःख शल्य-विकल्पों से बचना है तो जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करें, भेदज्ञान तत्व निर्णय के बगैर जीवन में समता शांति आ ही नहीं सकती, स्व-पर का यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान ही जिनवाणी का सार है। जिसके जीवन में समता शांति होती है वही वर्तमान में मुक्ति का सुख भोगता है।
प्रश्न- यह मुक्ति का सुख कैसा होता है और किसे तथा कैसे मिलता है ?
इसके समाधान में वीतरागी संत श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्यजी महाराज आगे गाथा कहते हैं