________________
२२१]
[मालारोहण जी
गाथा क्रं.३१]
[ २२२
गाथा
है। मैं शुद्धोपयोग करूँ ऐसी समकिती को इच्छा ही नहीं होती क्योंकि इच्छा ही तो राग है व उससे शुद्धोपयोग नहीं आता। स्वभाव सन्मुख होने पर इच्छा रूपी राग टूट जाता है। स्वरूप में लीन होने पर बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होना ही शुद्धोपयोग है । स्वभाव सन्मुख दृष्टि होने के बाद काल क्रम से शुद्धोपयोग होता है।
ज्ञानी की दृष्टि तो संसार से छूटने की है, अत: वह राग रहित निवृत्त स्वभाव की साधना में सावधानी से प्रवृत्त रहता है। मैं अशरीरी अविकारी, निरंजन, धुव तत्व सिद्ध स्वरूपी, शुखात्मा हूँ ऐसा दृढ़ श्रद्धान ज्ञान होने से स्वप्न में भी पुण्य-पाप और संसार की बातों का आदर नहीं करता। जो सिद्ध परमात्मा चिदानन्द पूर्ण शुद्ध मुक्त हुये हैं, उनके कुल का मैं भी उत्तराधिकारी हूँ । चारगति में घूमने का राग कलंक है, अतीन्द्रिय सिद्ध परमात्म दशा को प्रगट करना है,ज्ञानी ऐसा दृढव्रती है।
आत्मा में पुरूषार्थ पूर्वक निज उपयोग को तन्मय करना, वह ही चारित्र अथवा तप है। जो वीतराग दशा प्रगट करे सो तप है। उस समय काय क्लेश होता है परन्तु मुनि तो उससे आत्मा में होने वाली विभाव परिणति के संस्कार को मिटाने का उद्यम करते हैं। कायक्लेश में शरीर कृश हो, अंगोपांग चूर हो जायें परन्तु स्वभाव में विशेष लीनता हो, मुनि ऐसा उद्यम करते हैं तथा निज शुद्ध स्वरूप में उपयोग को स्थिर करते हैं यह चारित्र है । उसी में लीन हो जाना, ऐसी उग्रता ही तप है।
अतीन्द्रिय आनन्द में झूलते मुनि छठे-सातवें गुणस्थान में रहते हुये भी आत्म शुद्धि की दशा विकसित होती ही रहती है. केवलज्ञान न हो तब तक मुनिराज शुद्धि की वृद्धि करते ही जाते हैं। इस अंतर साधना को बाहर से नहीं देखा जा सकता, यह तो स्वयं का ही स्वयं अतीन्द्रिय आनन्द का भोग है। भगवान कहते हैं कि साधक इन संसार जनित भावों में नहीं है, स्त्री, पुत्र, पैसा, धन्धा छोड़ा अत: संसार छोड़ा यह बात नहीं है। जो पर्याय में होने वाले संसार जनित सुख-दुःखादि से दूर वर्तता है उसी ने संसार छोडा है। जो वस्तु प्रत्यक्ष अनुभव प्रमाण है, प्रगट है, विद्यमान है, जिसका अस्तित्व पर्याय में नहीं, ध्रुव में है, उसमें जो निष्ठ (श्रद्धावान) है वह ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानी साधक
साधु है।
इसी साधना के बल से साधक अपने में रत्नत्रय मालिका झुलती हुई देखते हैं और आनन्द-परमानन्द में रहते परमात्म पद की ओर बढ़ते हैं। इसी सन्दर्भ को और स्पष्ट दृढ़ करने हेतु अगली गाथा कहते हैं -
गाथा-३१ जे सुद्ध बुद्धस्य गुन सस्वरूपं, रागादि दोषं मल पुंज तिक्तं । धर्मं प्रकासं मुक्ति प्रवेसं, ते माल दिस्टं हृिदै कंठ रूलितं ॥
शब्दार्थ- (जे) जो (सुद्ध बुद्धस्य) सम्यग्दृष्टि ज्ञानी (गुन सस्वरूपं) सत्स्वरूप के गुणों को (रागादि दोषं) राग-द्वेष मोह (मल पुंज) शंकादिपच्चीस दोषों का समूह (तिक्तं) छोड़ते हैं,छूट जाते हैं (धर्म प्रकासं) धर्म का प्रकाश करते हुये (मुक्ति प्रवेसं) मुक्ति में प्रवेश करते हैं (ते) वह (माल दिस्टं) रत्नत्रय मालिका देखते हैं (हिंदै कंठ रूलितं) हृदय कंठ में झूलती हुई।
विशेषार्थ-जो शुद्ध दृष्टि ज्ञानी, शुद्ध ज्ञान गुणों मयी निज शुद्धात्म तत्व सत्स्वरूप की साधना करते हैं और प्रबल भेदज्ञान बल से समस्त रागादि दोषों के मल समूह को त्याग देते हैं, वे ज्ञानी कर्मों से रहित शुद्ध चैतन्य स्वभाव निज धर्म को प्रकाशित कर अर्थात् अपने में लीन होकर मुक्ति में प्रवेश करते हैं, सिद्ध पद पाते हैं और अनन्त काल तक ज्ञानादि अनन्त गुणोंमयी अभेद शुद्ध समयसार स्वरूप को स्व संवेदन में प्रत्यक्ष झुलता हुआ देखते हैं, परमानन्द मे लीन रहते हैं।
ज्ञानी, पर को ग्रहण नहीं करता, पर को नहीं चाहता, वह स्वयं में ही परिपूर्ण है। ज्ञानी सर्वत्र अत्यन्त निरालम्ब होकर, नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भाव रहता हुआ, साक्षात, विज्ञानघन आत्मा का अनुभव करता है।
सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं निज रस में मस्त हुआ आदि मध्य अन्त रहित, सर्व व्यापक, एक प्रवाह रूप धारावाही ज्ञान रूप होकर ज्ञान के द्वारा समस्त गगन मंडल में व्याप्त होकर नृत्य करता है। सत्स्वरूप के नि:शंकित आदि गुण प्रगट होने पर राग-द्वेष, मोह और शंकादि दोषों का समूह विला जाता है। वह धर्म का प्रकाश करता हुआ मुक्ति में प्रवेश करता है।