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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.३१]
[ २२४
(१) जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने ज्ञान श्रद्धान में निशंक हो, भय के निमित्त से स्वरूप से चलित न हो अथवा संदेह युक्त न हो उसके नि:शंकित गुण होता है।
(२) जो कर्म फल की बांछा न करे तथा अन्य वस्तु के धर्मों की बांछा न करे, जिसे सांसारिक कोई भी कामना, वासना नहीं है, उसके नि: कांक्षित गुण होता है।
चक्रवर्ती की सम्पदा, इन्द्र सरीखे भोग।
काक वीट सम लखत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग। (३) जो वस्तु के धर्मों के प्रति ग्लानि न करे, उसके निर्विचिकित्सा गुण
होता है। ४) जो स्वरूप में मूढ न हो, स्वरूप को यथार्थ जाने, उसके अमूढदृष्टि
गुण होता है। जो आत्मा को शुद्ध स्वरूप में स्थित करे, आत्मा की शक्ति बढ़ाये
और अन्य धर्मों को गौण करे, उसके उपगूहन गुण होता है। (६) जो स्वरूप से च्युत होते हुये आत्मा को स्वरूप में स्थापित करे,
उसके स्थितिकरण गुण होता है। जो अपने स्वरूप के प्रति विशेष अनुराग रखता है, उसके वात्सल्य
गुण होता है। (८) जो आत्मा के ज्ञान गुण को प्रकाशित कर प्रगट करे, उसके प्रभावना
गुण होता है।
अपने सत्स्व रूप के इन आठ गुणों के प्रगट होने से प्रथम नि:शंकित गुण से आत्मा की अखंड श्रद्धा के रूप में अभयपना आता है।दूसरे निकांक्षित गुण से समस्त कामना, वासना का अभाव हो जाने से राग का अभाव हो जाता है। तीसरे निर्विचिकित्सा गुण से ग्लानि रूप देष भाव का अभाव हो जाता है। चौथे अमूह दृष्टि गुण से पर पर्याय से मोह भाव का अभाव हो जाता है। इस प्रकार अभयपना प्रगट होने और मोह, राग, द्वेष का अभाव होने से शेष चार गुण-उपगूहन, स्थितिकरण,
वात्सल्य, प्रभावना द्वारा धर्म का प्रकाश करता हुआ मुक्ति में प्रवेश करता है अर्थात् अपने निज के निश्चय सम्यक्त्व द्वारा आठों गुणों के प्रगटपने से नवीन कर्म का संवर करता हुआ तथा पूर्व में स्वापराध से बांधे कमों की अपने निर्जरा योग्य परिणामों की उठान से क्षय करता हुआ, वह सम्यग्दृष्टिज्ञानी स्वयं स्वानुभवोत्पन्न अत्यंत आनन्द स्वरूप रत्नत्रय मालिका से सुशोभित आदि, मध्य, अंत भाव से रहित ज्ञानानन्द स्वभाव में मस्त रहता हुआ, केवलज्ञान स्वरूप अरिहन्त पद और सिद्ध पद पाता है।
शुद्ध चैतन्य ज्ञायक प्रभु की दृष्टि, ज्ञान तथा अनुभव वह साधक दशा है। इससे पूर्ण साध्य दशा प्रगट होगी। साधक दशा है तो निर्मल ज्ञानधारा परन्तु वह भी आत्मा का मूल स्वभाव नहीं है क्योंकि वह साधना मय अपूर्ण पर्याय है। आत्मा पूर्णानन्द का नाथ, सच्चिदानन्द प्रभु, ब्रह्मानन्द स्वरूप है। पर्याय में रागादि भले हों परन्तु वस्तु मूल स्वभाव से ऐसी नहीं है।
जब निज पूर्णानन्द प्रभु परमानन्द स्वरूप में एकाग्रता रूप साधक दशा में साधना की उग्रता होती है, तब अडतालीस मिनिट में केवलज्ञान तथा आयु का अन्त आने पर पूर्ण मुक्त सिद्ध दशा प्रगट होती है।
आत्मा राग के विकल्प से खण्डित होता था, जब अपने स्वरूप का निर्णय करके भीतर स्वरूप में स्थिर हुआ, वहाँ जो खंड होता था, वह रूक जाता है और अकेला आत्मा अनन्त गुणों से भरपूर आनन्द स्वरूप रह जाता है।
स्वरूप में लीनता के समय पर्याय में भी शान्ति और वस्त में भी शान्ति. आत्मा के आनन्द रस में शान्ति, शान्ति,शान्ति रहती है। समता, अतीन्द्रिय आनन्द वर्तमान पर्याय में और त्रैकालिक वस्तु में भी रहता है। आत्मा का आनन्द रस बाहर और भीतर सर्व प्रकार प्रस्फुटित हो जाता है। आत्मा विकल्प के जाल को तोड़कर आनन्द रस रूप अपने स्वरूप को प्राप्त होता है।
जिनको पूर्ण परमानन्द प्रगट हो गया है ऐसे परमात्मा, पुन: अवतार नहीं लेते परन्तु जगत के जीवों में से कोई भी जीव उन्नति क्रम से चढ़ते-चढ़ते, जगद्गुरू तीर्थंकर अरहन्त परमात्मा होता है, इससे जगत के