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[मालारोहण जी
हमेशा चिन्तवन करते, चेतते, अनुभव करते हैं (अचेतं विनासी) शरीरादि संयोग जो नाशवान हैं (असत्यं ) रागादि भाव जो झूठे असत् हैं (च) और (तिक्तं) छूट गये हैं, छोड़ दिये हैं (जिन उक्त सार्धं) जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार श्रद्धान साधना करते हैं (सु तत्वं प्रकासं) शुद्धात्म तत्व का प्रकाश, महिमा, बहुमान, प्रभावना करते हैं (ते) वह (माल दिस्टं) रत्नत्रय मालिका देखते हैं (ह्रिदै कंठ रूलितं) हृदय कंठ में झूलती हुई ।
विशेषार्थ जो ज्ञानी चैतन्य लक्षण मयी निज स्वभाव का चिन्तन करते हैं, शरीरादि संयोगी पदार्थों से, रागादि विभावों से दृष्टि हटाकर जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार शुद्ध स्वभाव की साधना करते हैं। वही ज्ञानी शुद्धात्म तत्व का प्रकाश प्रगटपना करते हुये रत्नत्रयमयी ज्ञान गुण मालिका को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखते हैं अर्थात् हमेशा आनन्द-परमानन्द में प्रसन्न मस्त रहते हैं।
ज्ञानी ने चैतन्य का अस्तित्व ग्रहण किया है, अभेद में ही दृष्टि है। मैं तो ज्ञानानन्द स्वभावी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ शान्ति का स्थान, आनन्द का स्थान ऐसा पवित्र उज्जवल आत्मा है, वहाँ ज्ञायक में रहकर ज्ञान सब करता है अर्थात् स्व-पर को सब जानता है परन्तु दृष्टि तो अभेद पर ही है। चैतन्य की स्वानुभूति रूप खिले हुए नन्दनवन में साधक आत्मा आनन्द में विहार करता है।
साधक जीव को अपने अनेक गुणों की पर्याय निर्मल होती है, खिलती है। जिस प्रकार नन्दनवन में अनेक वृक्षों के विविध प्रकार के पत्र, पुष्प, फलादि खिल उठते हैं, उसी प्रकार साधक आत्मा के चैतन्य रूपी नन्दनवन में अनेक गुणों की विविध प्रकार की पर्यायें खिल उठती हैं ।
ज्ञानी, चैतन्य की शोभा निहारने के लिए कौतूहल बुद्धि वाले, आतुर होते हैं। उन परम पुरुषार्थी महाज्ञानियों की दशा तो अपूर्व होती है ।
यहाँ तो निरालम्ब चलने की बात है, वस्तु स्वभाव ऐसा है। बाहर कुछ करने का नहीं है, बस अपने चैतन्य स्वभाव में ही लीन होना है। आत्मा सदा
गाथा क्रं. ३० ]
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अकेला ही है, आप स्वयंभू है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की निरालम्बी चाल प्रगट हुई उसे कोई रोकने वाला नहीं है।
आत्मा तो ज्ञाता है, आत्मा की ज्ञातृत्व धारा को कोई रोक नहीं सकता भले रोग आये या उपसर्ग आये, आत्मा तो निरोग और निरूपसर्ग है।
सम्यग्दर्शन होते ही जीव, चैतन्य महल ध्रुव धाम का स्वामी बन गया। तीव्र पुरूषार्थी को महल का अस्थिरता रूप कचरा निकालने में कम समय लगता है । मन्द पुरूषार्थी को अधिक समय लगता है परन्तु दोनों अल्पअधिक समय में सब कचरा निकालकर केवलज्ञान अवश्य प्राप्त करेंगे ही।
विभावों में और पंच परावर्तनरूप संसार में कहीं विश्रान्ति नहीं है । चैतन्य गृह ही सच्चा विश्रान्ति गृह है। मुनिवर उसमें बारम्बार निर्विकल्प रूप प्रवेश करके विशेष विश्राम पाते हैं। बाहर आये नहीं कि अन्दर चले जाते हैं। जिसे द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई, उसकी दृष्टि अब चैतन्य के तल पर ही लगी है, उसमें परिणति एकमेक हो गई है। चैतन्य तल में ही सहज दृष्टि है। स्वानुभूति के काल में या बाहर उपयोग हो, तब भी चैतन्य से दृष्टि नहीं हटती, दृष्टि बाहर जाती ही नहीं। ज्ञानी चैतन्य के सागर में पहुँच गये हैं, बहुत गहराई तक पहुँच गये हैं। साधना की सहज दशा साधी हुई है।
ज्ञानी के अभिप्राय में राग है, वह जहर है, काला सांप है। अभी आसक्ति के कारण ज्ञानी थोड़े बाहर रखड़े हैं, राग है, परन्तु अभिप्राय में काला सांप लगता है। ज्ञानी विभाव के बीच, शरीरादि संयोग में होने पर भी इन सबसे प्रथक् अपने चैतन्य स्वरूप की साधना करते हैं।
जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा, जिनवाणी में आया, वैसे ही अपने चैतन्य स्वरूप के स्वानुभव के शान्त रस में तृप्त रहते हैं चैतन्य के आनन्द की मस्ती में इतने मस्त हैं कि अब अन्य कुछ भी करना शेष नहीं रहा ।
अपने रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला का निरन्तर वेदन करते हुये आनन्द परमानन्द में रहते हैं। मुनि धर्म शुद्धोपयोग रूप है। पुण्य-पाप रूप क्रिया शुभाशुभ भाव धर्म नहीं है परन्तु शुद्धोपयोग ही धर्म है ऐसा निर्णय तो पहले ही हो चुका है। सम्यग्दर्शन सहित अन्तर में लीनता वर्तती हो वही मुनि धर्म