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[मालारोहण जी
का दर्शन होता है। ध्यान द्वारा ही आत्म साक्षात्कार होता है । आत्म तत्व, परमात्म तत्व में लय हो जाता है। ध्यान की चरम अवस्था में साधक आनंद महोदधि में निमग्न हो जाता है।
यह आर्त, रौद्र ध्यान क्या है, कैसे होते हैं, इसे स्पष्ट
प्रश्न करें ?
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समाधान
चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। पद्मासन, सुखासन आदि लगाकर शांत एकान्त स्थान में बैठकर मंत्र जप आदि के द्वारा मन शांत किया जाता है और उसके बाद साधक का लक्ष्य और दृष्टि कैसी है, क्या है ? उस पर एकाग्र स्थित होना ध्यान है। यह धर्म ध्यान के अंतर्गत आता है, इसमें भी भेद है कि यह साधक सम्यग्दृष्टि है, मुक्ति की भावना है, तो वह अपने आत्म स्वरूप का चिंतवन और ध्यान करता है यही सही धर्म ध्यान है, दूसरा जिसे अभी निज शुद्धात्मानुभूति तो नहीं हुई पर उसी लक्ष्य और भावना से उस ओर का प्रयास पुरूषार्थ करता है तो वह सामायिक ध्यान भी धर्म ध्यान कहने में आता है।
यह आर्त- रौद्र ध्यान जिनके चार-चार भेद बताये हैं। यह पूर्व कर्म बंधोदय भाव या वर्तमान परिस्थिति जन्य वैसे विचारों में बहना और डूब जाना लिप्त तन्मय हो जाना यह भी ध्यान है, यह संसारी घर ग्रहस्थ दशा में रहते अपने आप होते हैं इन्हें करना नहीं पड़ते और जैसा गुणस्थान उसमें बताया है, उस अनुसार यह अपने आप होते हैं इनसे बचना, हटना, सावधान रहना आवश्यक है और जो इनसे सतर्क सावधान रहता है वही साधक कहलाता है । भेदज्ञान तत्व निर्णय होने पर ही यह पकड़ में आते हैं और शमन होते हैं।
आर्त ध्यान में - इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा चिन्तवन और निदान बंध, यह सब संयोग के कारण होते हैं, दुःख असाता रूपभाव, आर्तध्यान कहलाते हैं ।
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रौद्र ध्यान में हिंसा में आनंद मानना, झूठ बोलने में आनंद मानना, चोरी करने में आनंद मानना, परिग्रह में आनंद मानना ।
कठोर दुष्ट परिणाम, रौद्र ध्यान कहलाते हैं। यह दोनों वर्तमान में
गाथा नं. २८ ]
दुःख देने वाले और भविष्य में दुर्गति के कारण हैं ।
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मूल में सम्यग्दर्शन भेदज्ञान हो तो यह सब समझ में आते, शमन हो
हैं। जिस जीव को अपने स्वरूप का बोध ही नहीं है, जिसे भेदज्ञान, सम्यग्दर्शन नहीं हुआ, वह क्या कर रहा है, क्या हो रहा है, और क्या होगा ? उसे इसका होश ही नहीं है, वह तो दया का पात्र है।
यह सब सुन समझ कर राजा श्रेणिक फिर प्रश्न करता है कि प्रभो ! जब सम्यग्दर्शन के बगैर कुछ नहीं होता और अकेले सम्यग्दर्शन से भी कुछ नहीं होता, तो इससे भ्रम पैदा होता है, इसे और स्पष्ट करें ? समाधान- सम्यग्दर्शन के बगैर बुद्धि विवेक का जागरण नहीं होता, भेदज्ञान होने पर ही अपने स्वरूप का बोध जागता है और मुक्ति का मार्ग बनता है।
सत्समागम द्वारा आत्मा को पहिचान कर आत्मानुभव करना पहले आवश्यक है। आत्मानुभव सम्यग्दर्शन का ऐसा माहात्म्य है कि फिर कैसी ही अनुकूलता - प्रतिकूलता, पाप-पुण्य के उदय में जीव को दु:ख, भय, चिंता नहीं होती, उन सभी को समता भाव से सहन करने की शक्ति आत्मा में आ जाती है।
ज्ञानी होना ही संसार के दुःखों से छूटना और मुक्ति प्राप्त करने का कारण है। अज्ञान दशा में ही अनादि से चार गति चौरासी लाख योनियों का भव भ्रमण किया है, जन्म-मरण के दुःख भोगे हैं, इसलिए सम्यग्दर्शन पहले होना चाहिए तभी मुक्ति के मार्ग पर चला जाता है और उससे ही जीवन में सुख, शांति आनंद आता है।
दृष्टि का विषय द्रव्य स्वभाव व निज शुद्धात्म स्वरूप है, उसमें तो अशुद्धता की उत्पत्ति ही नहीं है। सम्यग्दृष्टि को किसी एक भी अपेक्षा से अनंत संसार का कारण रूप मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय का बंधन नहीं होता परन्तु इस पर से कोई यह मान लेवे कि उसे तनिक भी विभाव व बंध नहीं होते, तो वह एकांत है। समकिती को अन्तर शुद्ध स्वरूप की दृष्टि और स्वानुभव होने पर भी अभी आसक्ति शेष है जो उसे दुःख रूप लगती है