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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२९]
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इसलिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की परिपूर्णता होने पर ही मुक्ति होती
प्रश्न- सम्यग्दर्शन कितने प्रकार का होता है, मुक्ति मार्ग के लिए कौन
सा सम्यग्दर्शन आवश्यक है? इसके समाधान में अगली गाथा कहते हैं
गाथा-२५ अन्या सु वेदं उवसम धरेत्वं, ष्यायिकं सुद्धं जिन उक्त सार्धं । मिथ्या त्रिभेदं मल राग षंडं, ते माल दिस्टं हिंदै कंठ रूलितं ।।
शब्दार्थ- (अन्या) आज्ञा (सुवेद) वेदक, क्षायोपशमिक (उवसम) उपशम (धरेत्वं) धारण करते हैं (ष्यायिक) क्षायिक (सुद्धं) शुद्ध (जिन उक्त सार्ध) जिनेन्द्र के कहे अनुसार श्रद्धान करते हैं (मिथ्या त्रिभेदं) तीनों प्रकार का मिथ्यात्व (मल) पच्चीस दोष (राग) राग-द्वेष (पंड) तोडते हैं. छोडते हैं (ते) वह (माल दिस्ट) रत्नत्रय मालिका देखते हैं (हिंदै कंठ रूलितं) हृदय कंठ में झुलती हुई।
विशेषार्थ- जिन्हें निज शद्धात्म स्वरूप की श्रद्धा अनुभूति है, ऐसे जो जीव आज्ञा, वेदक, उपशम, क्षायिक या शुद्ध किसी भी सम्यक्त्व को धारण करते हैं तथा जिन वचनों के श्रद्धान सहित स्वभाव साधना में रत रहते हैं। शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान से जिनके तीनों मिथ्यात्व और रागादि नष्ट हो गए हैं, वे ज्ञानी अपने हृदय कंठ में रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला को झुलती हुई देखते हैं अर्थात् शुद्ध चैतन्य स्वरूप का अनुभव करते हैं, वे मोक्षमार्ग के साधक हैं।
यहाँ भगवान महावीर, राजा श्रेणिक की जिज्ञासा का समाधान करते हैं कि
सम्यक्त्व पांच होते हैं-(१) आज्ञा सम्यक्त्व (२) वेदक सम्यक्त्व (३) उपशम सम्यक्त्व (४) क्षायिक सम्यक्त्व (५) शुद्ध सम्यक्त्व ।
इनमें से कोई सा भी सम्यक्त्व हो, मुख्य बात-जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो, यही निश्चय सम्यग्दर्शन मुक्ति
मार्ग में प्रयोजनीय है। इसके साथ जिसके तीनों मिथ्यात्व, पच्चीस मल दोष, रागादि भाव छूट गए हों, वह रत्नत्रय मालिका को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखता है।
हे राजा श्रेणिक ! यह मुक्ति मार्ग और रत्नत्रय मालिका अपूर्व बात है, जिसने इसे धारण कर लिया वह तो कृत-कृत्य हो गया वह जीव तदभव दो चार भव या दस भव में परमात्मा होगा ही।
जो ममल स्वभाव परमानंद मयी गुणों का पिंड है, ऐसे चैतन्य की जिसे महिमा है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। उसे फिर दया, दान आदि के राग व उनके फल की महिमा नहीं होती। व्यवहार रत्नत्रय के शुभ राग देव, शास्त्र, गुरू आदि से मेरा भला होगा या मैं पर का भला कर सकता हं ऐसे मिथ्यात्व का अभाव हो जाता है। शंकादि, पच्चीस मल दोष फिर उसमें नहीं होते, वह निःशंकित अभय होता है।
सम्यग्दृष्टि को तो बाहर के विकल्पों में आना रूचता ही नहीं है। यहाँ तो विशेष दशा वालों की बात है, महाज्ञानी अन्तर में जम गए हैं, अब मुझे बाहर आना ही न पड़े, ज्ञानी की ऐसी भावना होती है।
सम्यग्दृष्टि जीव अपने को शुद्ध त्रिकाल आत्मा हूं,मैं घुव सिद्ध हूँऐसा ही मानते हैं। बाहर के संग का निमित्त - नैमित्तिक संबंध भी पर्याय के साथ है, मेरे साथ नहीं है।
जिसको पर्याय में ही एकत्व बुद्धि है, उसकी बुद्धि तो निमित्त के साथ चलती है किन्तु ज्ञानी को पर्याय में एकत्व बुद्धि नहीं है इस कारण उसकी पर्याय में एकत्व बुद्धि नहीं होती।
स्व में अर्थात् ज्ञान, आनंद आदि गुणों के भंडार आत्मा में उपयोग के लगते ही साधकपना व मुनिपना आदि क्रम पूर्वक आता है। उपयोग की स्थिरता में ही यथार्थ स्वरूपानंद, ज्ञानानंद, निजानंद का अनुभव उत्पन्न होने लगता है। जिससे पराश्रित, आकुलित परिणाम प्रत्यक्ष विष रूप मालूम होने लगते हैं, जो कि सम्यग्दृष्टि साधक व मुनियों को एक समय मात्र के लिए भी नहीं रूचते।
पुरूषार्थ की निर्बलता से अखण्ड आत्मा में पूर्ण स्थिरता न होने से