________________
२११]
[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२८]
[ २१२
नौ,नो कषाय चारों गुणस्थानों में होती हैं।
इस प्रकार करणानुयोग से यह सिद्ध होता है कि सातवें गुणस्थान वर्ती साधु को ही यह रत्नत्रय मालिका प्रत्यक्ष वेदन में आती है, दिखती है।
आर्त रौद्र ध्यान बुद्धि पूर्वक बैठकर नहीं करना पड़ते,यह तो पूर्व कर्मोंदय जन्य परिणाम होते हैं। इन भावों में बहना और उसी स्थिति में डूबे रहना, आर्त, रौद्र, ध्यान कहलाता है जो नरक और तिर्यंच आयु बंध के कारण हैं।
अभी साधक दशा तो अधूरी है। साधक को जब तक पूर्ण वीतरागतान हो और चैतन्य आनन्द धाम में पूर्ण रूप से सदा के लिए विराजमान न हो जाये, तब तक पुरूषार्थ की धारा तो उग्र होती जाती है। केवलज्ञान होने पर एक समय का उपयोग होता है और उस एक समय की ज्ञान पर्याय में तीन लोक एवं तीन काल का सारा परिणमन झलकता है।
विभाव का अंश वह दुःख रूप है, भले ही उच्च से उच्च शुभ भाव रूप या अति सूक्ष्म राग रूप प्रवृत्ति है तथापि जितनी प्रवृत्ति उतनी आकुलता है और जितना निवृत होकर स्वरूप में लीन हआ उतनी शान्ति एवं स्वरूपानन्द है।
पूर्ण गुणों से अभेद ऐसे शुद्धात्म तत्व पर दृष्टि करने से उसी के आलम्बन से पूर्णता प्रगट होती है। इस अखंड द्रव्य का आलम्बन वही अखण्ड एक परमपारिणामिक भाव का आलम्बन है। ज्ञानी को उस आलम्बन से प्रगट होने वाली औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव रूप पर्यायों का, व्यक्त होने वाली विभूतियों का वेदन होता है परन्तु उनका आलम्बन नहीं होता, उन पर जोर नहीं होता,जोर तो सदा अखण्ड शुद्ध द्रव्य पर ही होता है।
इस प्रकार साधु हमेशा ज्ञान-ध्यान साधना में रत रहते हैं।
प्रश्न - पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यान किस प्रकार किया जाता है इसकी विधि क्या है?
समाधान-ध्यान की प्रारम्भिक भूमिका में तो पंच परमेष्ठी पद आदि के माध्यम से धारणा रूप विकल्पात्मक अभ्यास किया जाता है। यहाँ तो जो स्वरूपानुभूति सहित साधु पद में बैठा है, वह पदस्थ ध्यान में असंख्यात प्रदेशी अपने चैतन्य पिंड में स्थित होता है। असंख्यात प्रदेशों का पिंड शुद्ध
चैतन्य ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ ऐसा ध्यान करता है। रूपस्थ ध्यान में अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होता है और रूपातीत ध्यान में सारे विकल्पों से रहित शान्त, शून्य निर्विकल्प समाधि होती है। इस प्रकार की ध्यान साधना से परम शान्ति, परम आनन्द की अनुभूति होती है। इसकी विशेष उग्रता होने पर श्रेणी माडने योग्य शुक्ल ध्यान की स्थिति बन जाती है, जिससे केवलज्ञान अरिहंत सर्वज्ञ पद प्रगट होता है। इस ध्यान साधना में लीन रहना ही रत्नत्रयमयी ज्ञान गुण माला की अनुभूति, उपलब्धि आनन्द- परमानन्द दशा है।
किसी एक विचार या आलम्बन पर चित्त का एकाग्र हो जाना ध्यान है, ध्यान की अवस्था में शरीर अत्यन्त भारहीन, मन सूक्ष्म और स्वास-प्रश्वास अलक्षित प्रतीत होते हैं।
प्रथम भूमिका में ध्यान का अभ्यास करने से दैनिक जीवन चर्या में मोह से विमुक्त हो जाता है और ज्यों-ज्यों वह मोह से विमुक्त होता है, त्यों-त्यों उसे ध्यान में सफलता मिलती है। ध्यान जनित आनन्द की अनुभूति होने पर व्यक्ति को भौतिक जगत के कुटिलता, घृणा,स्वार्थ, परिग्रह, विषय भोग आदि नीरस एवं निरर्थक प्रतीत होने लगते हैं।
अस्त,व्यस्त, ध्वस्त एवं भग्न मन को शान्त, सुखी एवं स्वस्थ्य करने के लिए ध्यान सर्वश्रेष्ठ औषधि है। जाग्रत अवस्था में ध्यान अन्तरंग का गहन सुख होता है,जो अनिर्वचनीय है।
ध्यान कोई तंत्र, मंत्र,नहीं है, ध्यान एक साधना है जिसके द्वारा अपने भीतर आत्मानंद उपजाया जाता है। मौन, ध्यान का प्रथम चरण है। मौन का अर्थ है, बाह्य संचरण छोड़ अन्त: संचरण करना, मौन का अर्थ है, संयम के द्वारा धीरे-धीरे इन्द्रियों तथा मन के व्यापार का शमन करना।
मौन की सफलता होने पर ही ध्यान की सफलता होती है इसलिए उसे मुनि कहते हैं। मौन व्रत धारण करने से राग-द्वेषादि मद मान शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। मौन से गुणों की वृद्धि होती है, मौन से ज्ञान प्राप्त होता है, मौन से उत्तम श्रुतज्ञान प्रगट होता है। मौन से केवलज्ञान प्रगट होता है। (भगवान महावीर स्वयं साधु अवस्था में बारह वर्ष तक पूर्ण मौन रहे)।
ध्यान में गहरे स्तर पर चेतना की निर्ग्रन्थ निर्मल अखण्ड सत्ता