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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२३]
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यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला भी प्राप्त नहीं हो सकती और न मोक्ष हो सकता।
हे राजा श्रेणिक ! बिना शुद्ध दृष्टि (सम्यग्दर्शन) के यह रत्नत्रय की मालिका कोई देख नहीं सकता। इसी सन्दर्भ की अगली गाथा -
गाथा-२३ जे इन्द्र धरनेन्द्र गंधर्व जष्यं, नाना प्रकारं बहुविहि अनंतं । ते नंतं प्रकारं बहुभेय कृत्वं, माला न दिस्टं कथितं जिनेन्द्रं ।।
शब्दार्थ-(जे) जो (इन्द्रधरनेन्द्र गंधर्वजष्यं) इन्द्र, धरणेन्द्र, गन्धर्व, यक्षादि देव (नाना प्रकारं) नाना प्रकार के (बहविहि अनंत) बहत, अनेक तरह के अनन्त हैं (ते) वह (नंतं प्रकारं) अनन्त प्रकार से (बहुभेय कृत्वं) बहुत भेष बनायें और बहुत उत्साह महोत्सव करें, नाचें गायें (माला न दिस्टं) इस रत्नत्रय मालिका को नहीं देख सकते (कथितं जिनेन्द्र) यह जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है।
विशेषार्थ- जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर ने कहा- हे राजा श्रेणिक ! यह जो इन्द्र, धरणेन्द्र, गन्धर्व, यक्ष, आदि अनेकों तरह के बहुत से देव उपस्थित हैं, परन्तु इनमें से निज स्वभाव का लक्ष्य किसको है? वे अनेक प्रकार के नाना भेष बनायें, नाचें. गायें,जय-जयकार मचायें, या महोत्सव करें, तो भी रत्नत्रय मयी ज्ञान गुण माला नहीं देख सकते क्योंकि निजात्म दर्शन का किसी भेष, पर्याय, परिस्थिति से सम्बन्ध नहीं है। शुद्ध दृष्टि के बिना ज्ञान गुणमाला की प्राप्ति असंभव है और जो शुद्ध दृष्टि हैं या होंगे वह किसी पर्याय परिस्थिति में हो, धर्म में कोई जाति-पांति, कुल पर्याय का भेद भाव नहीं है। यह मनुष्य या देव क्या ? नारकी और तिर्यंच भी निज शुद्धात्मानुभूति द्वारा धर्म को उपलब्ध होकर परमात्मा बन सकते हैं। मैंने भी सिंह की पर्याय में निज शुद्धात्मानुभूति द्वारा धर्म को पाया और अपने आत्मा में जो पूर्ण परमानन्द भरा था उसे स्वयं अनुक्रम से प्रयास करके प्रगट कर
लिया। मन, वाणी और शरीर से भिन्न पूर्ण ज्ञानानन्द मय जो निज तत्व उसे पूर्ण रूप से साध लिया।
जगत के समस्त जीवों में से कोई भी जीव निज शुद्धात्मानुभूति (सम्यग्दर्शन) द्वारा इस रत्नत्रय मालिका को पाकर उन्नति क्रम से चढतेचढ़ते जगदगुरू तीर्थकर, अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा हो सकते हैं, सिद्ध पद पा सकते हैं।
अज्ञानी जीवों की बाह्य दृष्टि है, इसलिये बाह्य को ही देखते हैं और जब तक बहिर्मुख दृष्टि रहेगी, तब तक यह समवशरण में आने से भी भव का अभाव होने वाला नहीं है, यह कितनी ही पूजा, वन्दना, भक्ति करें, लेकिन भगवान कौन है, परमात्मा कैसा होता है? उसे नहीं जानते, जिनेन्द्र परमात्मा ने क्या कहा है, क्या कह रहे हैं? इसको नहीं समझते, वैसा अनुभव नहीं करते, तो यह बाहर की जय-जयकार से सिर्फ पुण्य-बंध होगा, जो संसार का ही कारण है।
रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला उपलब्ध होने पर तो अपूर्व अतीन्द्रिय आनन्द आता है, अन्तर में जय-जयकार मचती है। आत्मा पूर्णानन्द का नाथ है, इस पूर्णानन्द के नाथ, निर्वाण नाथ का पर्याय में ज्ञान हुआ कि यह ध्रुव वस्तु है, इस त्रिकाली ज्ञान स्वभावी वस्तु का जो ज्ञान, श्रद्धान पर्याय में हुआ, उस ज्ञान श्रद्धान सहित का जीव नियम से राग के अभाव रूपवैराग्यमय ही होता है।
__आत्मा में एक सुख शांति नाम का गुण है, जिसकी अन्तर शक्ति की मर्यादा अनन्त है, ज्ञानी जीव ऐसे सुख शक्ति के धारक आत्मद्रव्य का आदर करते हुए, पाँच इन्द्रियों के विषयों को भी हेय जानकर छोड़ते हैं।
आत्मा आनन्द मूर्ति, आनन्द का रस कन्द है, स्वयं शुद्धात्मा परमात्मा है, प्रवर्तमान बुद्धि, वह पर की प्रसिद्धि का कारण है। पर के ऊपर लक्ष्य करने वाली है। पर लक्ष्य में स्त्री, पुत्र, परिवार, संसार, समाज, देव, गुरू, शास्त्र सब आ जाते हैं.यह सब पर की प्रसिद्धि है। पाँचों इन्द्रियों और मन की ओर प्रवर्तित जो बुद्धि है, उसे पर लक्ष्य में जाने से रोके और आनन्द सागर आत्मा की ओर उन्मुख करे, वह आत्मा रूपी आनन्द के हिमालय में प्रविष्ट