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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२४]
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होने की सीढ़ियों पर चढ़ता है, उसे यह मालारोहण उपलब्ध होती है वही मुक्ति श्री का वरण करता है।
सम्यग्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होने पर यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला हृदय कंठ में निरन्तर झुलती दिखती है, जिससे हमेशा आनन्द, परमानन्द अमृत रस बरसता है,अतीन्द्रिय सख, अतीन्द्रिय आनन्द, उमंग, उत्साह धर्म की जय जयकार मचती है।
संसार का, पर का, पर्याय का सब लक्ष्य छट जाता है. एक मात्र अपना ध्रुव, धुव, ध्रुवधाम दृष्टि में झूलता है। सिद्ध स्वरूप, अरिहन्त सर्वज्ञ स्वरूप, स्मरण ध्यान में रहता है, फिर उसे बाहर क्या हो रहा है, कैसा हो रहा है? इसका कोई भान नहीं रहता, वह तो हर दशा में हर समय अपने ज्ञानानन्द, निजानन्द, सहजानन्द, स्वरूपानन्द, ब्रह्मानन्द में मगन रहता है।
धर्म की महिमा, रत्नत्रय मयी निज शुद्धात्मा का स्वरूप सुनकर राजा श्रेणिक को धर्म का बहुमान आया, वह भगवान के चरणों में नत हो गया और स्तुति पढ़ने लगा, जय-जयकार मचाने लगा।
जय-जय स्वामी त्रिभुवन नाथ, कृपा करो मोहि जान अनाथ । हों अनाथ भटको संसार, भ्रमतन कबहु न पायो पार ॥१॥ तातें शरण आयो मैं सेव, मुझ दुःख दूर करो जिनदेव । कर्म निकन्दन महिमा सार, अशरण-शरण सुयश विस्तार ||२|| नाहिं सेॐ प्रभु तुमरे पाय, तो मेरो जन्म अकारथ जाय । सुरगुरू वन्दों दया निधान, जग तारण जग पति जग जान ॥३॥ मैं तुव चरण कमल गुण गाय, बहुविधि भक्ति करूं मनलाय । दोई कर जोड़ प्रदक्षिणा दई, निर्मल मति राजा की भई ॥४॥
धर्म श्रवण करने से एक दिन क्षायिक सम्यक्त्व की उपलब्धि हो गई, समवशरण में जय-जयकार मच गई।
अब तो राजा श्रेणिक का जीवन ही बदल गया, धर्म के प्रति इतना उमंग उत्साह आया कि दर्शन विशुद्धि भावना चलने लगी, कि जगत के समस्त जीव ऐसे अपने शुद्धात्म स्वरूप को उपलब्ध कर परमानन्द में, परम भाव में क्यों नहीं हो जाते? हे जगत के जीवो! ऐसे सत्य धर्म को स्वीकार करो. इस भावना से एक दिन तीर्थकर प्रकृति का बंध भी हो गया, जब भगवान की दिव्य ध्वनि में यह बात आई तो सारा समवशरण हर्ष विभोर हो गया, चारों तरफ जय-जयकार होने लगी।
इसी प्रसंग में एक दिन राजा श्रेणिक भगवान से प्रश्न करते हैं कि भगवन ! शुद्ध दृष्टि के बिना यह रत्नत्रय मालिका नहीं मिलती और जिसको सम्यग्दर्शन हो जाता है, उसके हृदय कंठ पर यह मालिका शोभित होती है वह हमेशा आनन्द-परमानन्द में रहता है, आपकी वाणी में आया कि मुझे क्षायिक सम्यक्त्व हो गया, फिर यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गणमाला (निज शुद्धात्म स्वरूप) मेरे हृदय कंठ में झुलती हुई, हमेशा दिखाई क्यों नहीं देती, अर्थात् मुझे निरन्तर अपना स्मरण ध्यान क्यों नही रहता, मैं ऐसे आनन्द-परमानन्द में क्यों नहीं रहता, यह बताने की कृपा करें? इसके समाधान में भगवान कहते हैं
गाथा-२४ जे सुद्ध दिस्टी संमिक्त जुक्तं, जिन उक्त सत्यं सु तत्वार्थ सार्धं । आसा भय लोभ अस्नेह तिक्तं, ते माल दिस्टं हृिदै कंठ रुलितं ।
राजा श्रेणिक की बहिर्मुख दृष्टि होने पर भी हृदय में सच्चे देव, गुरू, धर्म की श्रद्धा और बहुमान आया, अपने किये हुये पापों का पश्चात्ताप होने लगा, परिणामों में निर्मलता, भावों में विशुद्धता आने से सातवें नरक का आयु बन्ध टूटकर, पहले नरक का रह गया, यह कर्मों में अपकर्षण हो गया, इससे राजा श्रेणिक की भावनाओं में बड़ा परिवर्तन आया और इसी क्रम से प्रतिदिन
शब्दार्थ - (जे) जो (सुद्ध दिस्टी) सम्यग्दृष्टि (संमिक्त जुक्तं) सम्यक्त्व से युक्त हैं अर्थात् जिन्हें निज शुद्धात्मानुभूति-निश्चय सम्यग्दर्शन हो गया है (जिन उक्त) जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार (सत्यं) सत्य है, ऐसा अनुभव कर लिया (सुतत्वार्थ साध) अपने इष्ट शुद्धात्म स्वरूप की साधना में रत रहते हैं (आसा भय लोभ अस्नेह) आशा, भय, लोभ, स्नेह (तिक्तं)